पुराणों में वर्णित धर्म :- धर्म का अस्तित्व देश एवं काल की सीमाओं से परे है। संसार के सभी देशों और जातियों में न जाने कब से धर्म की मान्यता चली आ रही है। धर्म की सार्वभौम एवं सार्वकालिक सत्ता को ही देखकर हमारे ऋषियों ने कहा है ‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा’ अर्थात् धर्म ही सम्पूर्ण संसार का आश्रयभूत तत्त्व है। इसलिए इन्होंने मानवमात्र को उपदेश दिया था- ‘धर्मं चर‘। ‘धर्मान्न प्रमितव्यम्’, ‘धर्मेण सुखमासीत्’ अर्थात् धर्म करो, धर्म से प्रमाद नहीं करना चाहिए, धर्म से ही सुख मिलता है।
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धर्म शब्द व्युत्पत्ति
धर्म शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘धृ’ धारणे धातु से मन् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इसका अभिप्राय है ‘ध्रियते लोकोऽनेन’ ‘धरति लोकं वा’ अर्थात् जिसके द्वारा यह लोक धारण किया जाता है। इस प्रकार लोक की धारक शक्ति को ही धर्म कहा गया है। अभ्युदय और निःश्रेयस् का साधनभूत वेदविहित कर्म, एक प्रकार का अदृष्ट यज्ञ जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
संस्कृत शब्दार्थ-कौस्तुभ के अनुसार ‘धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभिः इति वा’ अर्थात् वह कर्म जिसके करने से करने वाले का इस लोक में अभ्युदय हो और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो। किसी व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे और उससे कभी पृथक् न हो।’ ऋग्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग वेदविहित धार्मिक विधियों या संस्कारों के रूप में हुआ है।
ऐतरेयब्राह्मण में धर्म का अर्थ सकल धार्मिक कर्त्तव्यों के अनुपालन से सम्बद्ध है। छान्दोग्योपनिषद् में धर्म से तात्पर्य आश्रमों के विशिष्ट कर्त्तव्य और जीवन का संतुलित, संयमित एवं समन्वित स्वरूप निर्धारण करने से है।
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अंग्रेजी में धर्म के पर्याय के रूप में Religion शब्द का प्रयोग किया गया है। जॉन मेकेंजी ने हिन्दू एथिक्स नामक पुस्तक में धर्म के विषय में कहा है कि धर्म में रिलीजन, वर्च्यु, लॉ तथा ड्यूटी- अंग्रेजी के इन चार पदों का अर्थ समाहित किया है। पी. वी. काणे के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य होने के कारण उसकी समस्त क्रियाओं को नियमित करता है जिसका प्रयत्न व्यक्तित्व के लक्ष्य को प्राप्त करना है।
गौतम धर्मसूत्र में चारों वेदों को धर्म का मूल प्रमाण कहा गया है। “वेदो धर्ममूलम्।”
शास्त्रों में वर्णित धर्म-
धर्मशास्त्ररूपी रथ पर चलने वाले, वेदरूपी खड्ग को धारण करने वाले द्विजों का कथन ही धर्म माना गया है। किसी वस्तु की विधायक आन्तरिक वृत्ति को उसका धर्म कहा गया है। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है, वही उस पदार्थ का धर्म है। धर्म की कमी से उस पदार्थ का क्षय एवं धर्म की वृद्धि से ही उस पदार्थ की वृद्धि कही गयी है।
वाल्मीकि रामायण में धर्म
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है, वही परमगति है, धर्म में ही सत्य प्रतिष्ठित है।
धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्।
धर्म संश्रितमप्येतत् पितुर्वचनमुत्तमम्।। वा.रा
स्मृति ग्रन्थों में वेद, स्मृति, वेदज्ञों के आचरण तथा आत्मा की तुष्टि को धर्म का मूल कहा गया है।
वेदोऽखिलो धर्ममूल स्मृतिशीले च तद्विदाम्।।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।। – मनुस्मृति
याज्ञवल्क्यस्मृति में श्रुति, स्मृति, सदाचार एवं आत्मा की तुष्टि के साथ संकल्प से उत्पन्न इच्छा को धर्म का मूल कहा गया है।
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भागवतपुराण में धर्म
भागवतपुराण में धर्म के तीस लक्षण कहे गये हैं- सत्य, दया, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शिता, महात्माओं की सेवा, सांसारिक भोगों से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल विपरीत ही होता है- ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, अन्न का यथायोग्यविभाजन, मनुष्य में निज आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, श्रीकृष्ण के नाम, गुण, लीला।
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श्रीमद्भगवद्गीता में धर्म
श्रीमद्भगवद्गीता में धर्म के 26 लक्षणों का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया। दैवी-सम्पदा-प्राप्त व्यक्तियों में सर्वदा भय का अभाव, अंतःकरण की स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिए। ध्यान, योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवत् पूजा, अग्निहोत्र, उत्तम कर्मों का आचरण, स्वाध्याय, तप, अकुटिलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, दूसरे की निंदा न करना, निःस्वार्थता, मृदुता, लज्जा, तेज, क्षमा, धैर्य, अन्तःबाह्य शुद्धि, अद्रोह एवं निरभिमानिता आदि ये दैवी-सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
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देवीभागवतपुराण में धर्म
देवीभागवतपुराण में कहा गया है कि सतयुग में बहुत धर्म थे परन्तु कलियुग में केवल पुराणश्रवण के समान कोई धर्म नहीं है। धर्म आचार से हीन कलियुग में अल्पायु मनुष्यों के निमित्त व्यास ने यह पुराणरूपी अमृतरस विधान किया है। धर्म का नाश नहीं होना चाहिए, त्याग होने में हानि नहीं है। त्याग की अपेक्षा मरण श्रेयस्कर है, मनुष्यों को धर्महानि नरक के निमित्त ले जाती है।
दुर्गा ने स्वयं कहा है कि वे शत्रुतारहित होकर धर्मरक्षा के निमित्त इस संसार में विचरण करती हैं। साधुओं की रक्षा करना उनका व्रत है तथा इसका सदैव पालन करती हैं। धर्मपरायण सत्ययुग में, धर्म तथा अर्थ-परायण त्रेतायुग में, धर्म अर्थ तथा कामपरायण द्वापर युग में, अर्थ एवं कामपरायण इस कलिकाल में जन्म ग्रहण करते हैं।
धर्मरूपी मार्ग में सर्वथा वेदों को ही प्रमाण माना गया है, उसके सान्निध्य में जो कुछ भी है उसी का प्रमाण है किसी अन्य का नहीं। अतः समस्त प्रयत्नों से वेदोक्त धर्म द्वारा स्मृति, पुराण एवं तन्त्र शास्त्रों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।’ आत्मा का सहायक परलोक में माता-पिता, पुत्र, स्त्री, बन्धु कोई नहीं है, केवल धर्म ही स्थित होता है। एतदर्थ स्वसहायता के निमित्त साधनों द्वारा धर्म का उपार्जन करना चाहिए क्योंकि धर्म की सहायता से ही दुस्तर। अन्धकार को पार किया जाता है।
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धर्म शास्त्रों के अनुसार धर्म
धर्मशास्त्रों के अनुसार गर्भाधान से अन्त्येष्टि तक के संस्कार, वर्णाश्रम के नियमों का पालन, आचार-विचार, भक्ष्याभक्ष्य, रीति-रिवाज इत्यादि अन्य अनेक विषय भी धर्म के ही अन्तर्गत आते हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी याग, आचार, दम, अहिंसा, दान, स्वाध्याय आदि के साथ आत्मदर्शन की भी धर्म में ही गणना की है।
भारतीय जीवन धर्म की भावना से ओत-प्रोत है। धर्म की डोर से ही मानव-जीवन नियन्त्रित है। धर्म व्यक्ति को समाज में रहने के योग्य बनाता है। धर्म वह नियम है जो व्यक्ति तथा समाज के द्वारा पालित है। धर्म के सिद्धान्त पर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की स्थिति है। मनु ने धर्म को ही मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य का सच्चा साथी कहा है।
पूर्वोल्लिखित विवरण से ज्ञात होता है कि धर्म वह शक्ति है जो व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र को धारण करने का सामर्थ्य रखती है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के समस्त कर्त्तव्य, आचार और नाना व्यापार समाहित हैं जिनसे व्यक्ति विशेष अथवा समाज के जीवन का कल्याण होता है।
धर्म हमारी पूजा पद्धति, यज्ञविधि, रीति-रिवाज, संस्कार आदि का ही द्योतक नहीं है अपितु हमारे खान-पान भेषभूषा, सामाजिक व्यवहार अथवा संस्कृति का परिचायक है। संक्षेपतः धर्म मानव-जीवन ऐहिक तथा परलौकिक सभी पक्षों को स्पर्श करता हुआ को धारण करता है। धर्म ही मानव को एकता के सूत्र में बांधने वाला तत्त्व है।
क्रमशः………………
आभार-
डॉ विपन कुमार
सहायकाचार्य, रिजनल सेंटर, धर्मशाला
हिमाचलप्रदेश विश्वविद्यालय
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