अपौरूषेय वेद का काल विभाजन :- भारतीय वैदिक दृष्टि से वेदों के काल निर्णय का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि पारम्परिक दृष्टि से वेद अनादि हैं, नित्य हैं, काल अनवच्छिन्न हैं। सर्वप्रथम पारम्परिक दृष्टि से वेद सृष्ट्यादि काल में ऋषियों के माध्यम से प्रसृत होते हैं। वैदिक ऋषि वेद-मन्त्रों के द्रष्टा हैं। सृष्ट्यादिकाल में ऋषि मन्त्रों का स्वदिव्य चक्षुओं से दर्शन करते हैं, अतः “ऋषयः मन्त्रद्रष्टारः” संस्कृत में प्रसिद्धोक्ति है।
वस्तुतः वेद सर्वप्रथम ऋषियों को प्राप्त होते हैं। अतः ऋषि प्रणेता न होकर के केवल मन्त्र द्रष्टा हैं, और वैदिक ज्ञान अपौरुषेय एवं अलौकिक ईश्वरीय ज्ञान है। अस्तु तब भी यदि ऋषियों ने कब वेद-मन्त्रों का दर्शन किया इस जिज्ञासा का शमन करना चाहें तो हमें सृष्ट्यादिकाल का निर्णय करना चाहिए, क्योंकि वेद व्यवहारिक दृष्टि से उतने प्राचीन हैं जितनी प्राचीन यह सृष्टि।
स़ृष्टि-आदिकाल वैदिकवाङ्मय के विभिन्न अङ्ग-उपाङ्गो में प्रतिपादित है। षड्वेदाङ्गों मे हमें कालगणना के विषय में ज्योतिष का ही अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष कालविधान शास्त्र है। ज्योतिषीय ग्रन्थों के अनुसार यह सृष्टि कल्पात्मिका मानी गई है। ब्रह्मा के दिन का प्रमाण एक कल्प तथा रात्रि भी एक कल्प तुल्या होती है। कालगणना के सिद्धान्त ग्रन्थों के अनुसार इस जगत् में विधिवत् जीवन आरम्भ हुए 1955885121 सौरवर्ष हुए हैं । तो पारम्परिक दृष्टि से वेद इतने प्राचीन तो हैं ही।
परन्तु आधुनिक विद्वानों ने ऐतिहासिक दृष्टि से वेदों के काल का अन्वेषण करने का प्रयास किया। अनेक विद्वानों ने वेदों के आविर्भाव के प्रश्न को हल करने के लिए विभिन्न तर्क प्रस्तुत किये, परन्तु विद्वानों के द्वारा अन्वेषित काल में सहस्राब्धियों का अन्तर है। अधिकांश विद्वानों का लक्ष्य तो वेदों के विषय में प्रचलित “अपौरूषेयं वाक्यं वेदः” के मन्तव्य को असत्य सिद्ध करना था।
भारतीय संस्कृति के गौरवशाली विज्ञान को ऐतिहासिक दृष्टि से अर्वाचीन सिद्ध करने का एक प्रयास ही था वेद काल निर्णय। क्योंकि भारत लम्बे समय से परतन्त्र रहा था, और आज भी परतन्त्रता की झलक हमारे समाज में विशेषकर बुद्धिजीवी वर्ग में दिखती है।
विदेशी विद्वान यहाँ कि शिक्षा प्रणाली, शास्त्र परम्पराओं को देखकर स्तब्ध थे। इसलिए उन्होंने शास्त्र विषयक गौरवशाली बातों को मिथ्या सिद्ध करने के लिए परतन्त्रता के वातावरण में अपनी शिक्षा पद्धति को भारतीय शिक्षा पद्धति से उत्तम बताकर परोसा। चूँकि उनका शासन था हम परतन्त्र थे। परन्तु उनके लक्ष्य की सिद्धि तब हुई जब भारतीय मूल के विभिन्न विचारक भी वेद के काल का निर्णय करने के लिए कूद पडे, यह जानते हुए कि वेद अपौरूषेय कालातीत हैं।
अस्तु वेद-संहिताओं में ऋग्वेद ही सर्व प्रथम सर्वप्राचीन ग्रन्थ के रूप में विद्वानों द्वारा मण्डित है। प्रायः सभी आधुनिक विद्वानों ने काल निर्धारण विषय का प्रारम्भ ऋग्वेद के कालनिर्धारण से ही किया है।
पाश्चात्य विद्वानों के मत से विभाजन काल
पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने अपने ग्रन्थ अ हिस्ट्री आँफ एंशियन्ट संस्कृत लिटरेचर में वेद रचनाकाल को 1200 ई.पू. निर्धारित किया है। वेदरचनाकाल को मैक्समूलर ने चार कालखण्डों में विभाजित किया है। अन्य विद्वान मैक्डानल ने ऋग्वेद की भाषा और अवेस्ता की भाषा की तुलना के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 1300 ई.पू. माना है। इसप्रकार पाश्चात्य विद्वानों के प्रभाव में आकर भारतीय विद्वानों ने भी कालनिर्धारण में स्वमत प्रकट किया।
डा. जैकोबी ने संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त ज्योतिष संकेतो के आधार पर वेदरचनाकाल 3000ई.पू. स्वीकार किया है। भारतीय विद्वान अविनाशचन्द्रदास ने भूगर्भ शास्त्र के सिद्धन्तों की सहायता से ऋग्वेद में वर्णित भूगर्भ विषयक साक्ष्यों द्वारा वेद का काल 100000 वर्ष पूर्व निश्चित किया है।
भारतीय विद्वानों के मत से विभाजन काल
भारतीय विद्वानों में प्रमुखतया लोकमान्य तिलक ने भी ज्येतिषीय साक्ष्यों से वेद की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया। उन्होने ओरायन नामक ग्रन्थ में वसन्तसम्पात के आधार पर वेदों के काल पर विचार को प्रदान किया। उनके अनुसार वेदकाल 4000ई.पू. से पूर्व ही स्वीकार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भारतीय विद्वानों मे डा. भण्डारकर, डा. पी. बी. काणे, जयचन्द्र विद्यालङ्कार आदि ने भी वेद रचना काल 3000ई.पू. माना है। इस प्रकार विभिन्न विद्वानो. ने वेद काल विषय में विभिन्न मत प्रस्तुत किए है।
वर्तमान में भी आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग मैक्समूलर के मत का अदिक पक्षधर है जे कि असंगत अतार्किक है। डां विण्टरनिट्ज ने भी इसका खण्डन किया है। उन्होने वेदों के काल निर्धारण संबन्धी सभी मतों को उद्धृत करते हुए उनकी विवेचना करते हुएकहा है कि वेद मन्त्रों के अर्थों के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं।
अतः उनसे लिए गए भूगर्भविद्या सम्बन्धी साक्ष्य एवं ज्योतिषविषयक तथ्य सर्वथा शुद्ध नहीं हो सकते। यदि मैक्समूलर के अनुसार 1200ई.पू. काल माना जाए तो इस विशाल वैदिक वाङ्मय को समझने मे कठिनता होती है, क्योंकि मात्र 700-800 वर्षों में इतने विशाल वाङ्मय कि रचना संभव नहीं है। परन्तु तब भी विण्टरनिट्ज ने वेद काल लगभग 2500 ई.पू. माना है। परन्तु निष्कर्षतः उनका मानना यही है कि हम वेद कि कोई तिथि निश्चित न करें, इसके प्राचीन एवं नवीनवाद से बचें।
प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा प्रदत्त वेद रचनाकाल निम्न हैं-
- डा. मैक्समूलर – 1200 ई.पू.
- डा. विण्टरनिट्ज – 2500 ई.पू.
- प्रो. याकोबी या जैकोबी – 3000 ई.पू.
- प.बालकृष्ण दीक्षित – 6000 शक् पू.
- श्री तिलक – 4000 ई.पू.
- डा. अविनाश चन्द्र – 1 लाख वर्ष पूर्व
अस्तु विभिन्न विद्वानों ने वेदकाल सम्बन्धी मत प्रस्तुत किये , परन्तु बुद्धिजीवी विद्वानों ने सबसे ज्यादा समर्थन मैक्समूलर का किया क्योंकि उन्होने वेदकाल को सबसे अर्वाचीन सिद्ध करने का प्रयास किया। परन्तु विद्वानों के मत परस्पर विरोधी एवं तार्किक ही हैं। वस्तुतः वेद सृष्ट्यादिकाल में ऋषियों द्वारा दृष्ट होकर के प्रसृत हुए। अतः ऋषि मन्त्रों के द्रष्टा हैं, स्रष्टा नहीं।
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आभार-
श्री तिलकराज शास्त्री
संस्कृत अध्यापक, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश