आर्यभट्टआर्यभट्ट

भारतीय ज्ञान परम्परा में आर्यभट्ट | Aryabhatta in the Indian knowledge Tradition – आर्यभट्ट भारत के पहले महान गणितज्ञ तथा खगोल विज्ञानी थी। गुप्तकाल के गणितज्ञो मे आर्यभट्ट का नाम उल्लेखनीय है क्योंकि गुप्तकाल में साहित्य में कला, विज्ञान व ज्योतिष के क्षेत्र अभूतपूर्व प्रगति हुई। आय सम्भवतः आर्यभट्ट का आजकल कर्म क्षेत्र 66 कुसुमपुर” 10 जिसे पटना के नाम से जाना जाता है। उस समय इतिहास लेखन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। अत: उनके जन्म विषय में हमे प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है फिर भी 8 हमें उनके जन्मकाल के बारे में उनके स्वयं के ग्रन्थ से पता चलता है अर्थात उन्होंने वहां लिखा है 6 जब वह 23 वर्ष का था, उस समय 60 वर्षो के 60 युग और तीन युगपद (सत्युग । त्रेता और द्वापर ) बीत चुके थे ” तो उनके अनुसार उनका जन्म समय मूलतः 476 ई0 के आसपास था।

आर्यभट्ट अपने जीवन में अनेक रचनाएं लिखी थी। जिसमें से प्रमुख आर्यभटीयम् है। उन्होने अनेक क्षेत्रों मे अपना योगदान भी दिया है उन्होंने -गणित व खगोल विज्ञान के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया है गीत के पाइ का मान क्षेत्र मे जैसे शून्य की उत्पत्ति, ‘बीजगणित इत्यादि के विषय मे की है ग्रहण + खगोल विज्ञान में समीकरणे रविस्तृत व्याख्या ग्रहो की गातै न बी- सूर्यव चन्द्र ग्रहण तथा दिन रात व वर्ष का होना व नक्षत्र इत्यादि ।

इसके अतिरिक्त इसके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रो मे भी कार्य किए उन्होने भारत सरकार अनेक सेटालाइट का भी आविष्कार किया है इस प्रकार उन्होने अपने जीवन में योगदान देते हुए 74वर्ष की आयु मे अर्थात् 550 ई. में “प्राचीन भारत) मे मृत्यु हो गयी थी। उनका मृत्यु स्थान संभवत: पाटलिपुत्र ही था जहां पर उन्होने शिक्षा ग्रहण की तथा अन्य खोज कार्य किए वो आज भी भारतीय युवाओं व वैज्ञानिकों मे आदर्शवादी गणितज्ञ तथा वैज्ञानिक है उनके समस्त जीवन के ऊपर विस्तृत जानकारी निम्न प्रकार से है।

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आर्यभट्ट का काल

आर्यभट, उसके परिवार और उसके माता- पिता के बारे मे कुछ भी ज्ञात नहीं है। कहा जाता है कि अर्थिगृह कुसुमपुर (पटना, बिहार में) का रहने वाला था । उसने अपने जन्मकाल के बारे में उसने स्वयं अपने ग्रन्थ में लिखा है 16 जब वह 23 वर्ष का था, उस समय के 60 युग और तीन युगपद (सतयुग 60 वर्षो  त्रैता, द्वापर) बीत चुके थे।” इसके अनुसार उनका जन्म 476 ई0 के आसपास हुआ था उसकी कृति मे दिये बहुत से खगोलीय तथ्यों के आधार पर कतिपय विद्वानों द्वारा की गई गणनाओं से भी यही संकेत मिलता है कि आर्यभट्ट (संभवतय मान्यताओं के हिसाब से अधिक पाँचवी शताब्दी ई.पू. रहे होंगें । इसी युग को भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास मे भारत का सम्पूर्ण स्वर्ण युग कहा जाता है। उस काल में सम्राटो के शासनकाल में विज्ञान 1 तथा अन्य क्षेत्रो मे बौद्धिक का अदभुत उत्कर्ष हुगा |

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आर्यभट का योगदान

वैदिक वादक कल के और ईसा काल की एक शताब्दियो के शुरू प्रारम्भिक मैं भारत में खगोल और गणित के क्षेत्र में अद‌भुत प्रगति हुई। आर्यभट्रीय उस युग का हिन्द खगोल और गणित का सबसे प्राचीन सुरक्षेत ग्रन्थ है व्यक्ति ने जिसे आर्यभट्ट नामक लिखा है, ऐसा बताते हैं। केवल इस ग्रन्थ के और है। उदाहरणा से ही हमें आर्यभट्ट उसको कृति के बारे मे जानकारी मिलती ।

गणितज्ञ के रूप में योगदान –

The kaitst (history of pai). पाई की खोज आर्यभट्ट ने आर्यभटीय के दूसरे अध्याय के दसवें छेद में पाई का उन्होंने इसके लिए सबसे व्यास का 94 मान बताया है पहले एक वृत्त के निश्चित मान रखा। यह व्यास उन्होने इसके लिए सबसे पहले एक हृत के व्यास का मिश्रित मान रखा | यह व्यास उन्होंने 20,000 रखा था। बताया गया है कि मे चार जोड़कर उसे ४ से गुणा कर देने तथा प्राप्त हुए परिणाम में एक बार फिर 62008 जोड़ दीजिए । जो क्षतिम है उसे व्रत के प्यास से विभाजित कर दीजिए 1 अत: उसके पश्चात प्राप्त हुआ परिणाम ही पाई के मान है यह मान 3. 141 आता कोय

((47100) x 8 + 62000/201000 = 621832

€2,832 / 20.000 = 3.1416

इसे वर्तमान समय की में पाई के माने के ३ दशमलव तक ही सत्य मानते है।

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1) शून्य की खोज

आर्यभट्ट ने शून्य की खोज की, जो कि सुमीत की सर्वश्रेष्ठ खोज में से एक है- जिसके होती क्योंकि वे किसी गणनाएं असंभव संख्या के आगे शुन्य लगाते ही उसका मान 10 गुना वह जाता है इन्होने ही सर्वप्रथम स्थानीय मानक पद्धति के बारे मे जानकारी दी थी।

2. बीजगणित व समीकरण

आर्यभट्ट ने आर्यभटीय मे वर्गो एवं धनो की परिणाम का सूत्र निर्माण किया है :- 172²+ + n = [n (ntl) (Qn+1)]

प्राचीन भारत के गणितज्ञ हमेशा ही समीकरणो के अनिश्चित चरों का मान निकालने में बहुत ही रूचिकर रहे हैं आर्यभट्ट ने चरो वाली साधारण समीकरणों का हल निकालने के लिए कुटुक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यह सिद्धान्त बाद में मानक सिद्धान्त बन गया। उस समय में उन्होने इस कुडक सिद्धान्त बाद में मानक समीकरणों का 121 से axt by = C जैसी हल प्राप्त किया। आर्यभट्ट ने ही सर्वप्रथम त्रिकोणमिति के ज्या तथा कोज्या फलनों की रचना की थी। जब उनके ग्रन्थ का मे अनुवाद किया अरब भाषा गया तब अनुवादक ने इन शब्दों को जैसा का तैसा बदल दिया। जिसे हमे यह भी पता चलता है साइन व कोसाइन की रचना आर्यभट्ट ने ही की थी।

आधुनिक समय की गणना २० सेकडे की त्रुटि उस समय की अधिकतर प्रणालियों में संगणना उस सटीक थी के अनुसार इसमें नक्षत्र  “समय की धारणा अन्य खगोलीय ज्ञात थी, परन्तु संभवत: समय ‘हिसाब से यह सबसे महत्त्वपूर्ण है।

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आर्यभस्ट का काल

आर्यभट्ट, उसके परिवार और उसके माता-पिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। कहा आर्यभदर जाता है कि कुसुमपुर (पटना बिहार में) का रहने वादा था। उसने उसने स्वयं ” जब वह अपने अपने २३ वर्ष का जन्मकाल, के ग्रंथ में लिखा है था, उस समय के 60 युग और तीन युगपद और ऊपर) बीत चुके थे। इसके उनका जन्म 476 ई. के उसकी कृति में दिये बहुत के आधार पर कतिपय गणनाओं आर्यभट्ट में 60 वर्षो ई सतयुग, त्रेता अनुसार, आसपास हुआ था। सें खगोगील तथ्यों विद्वानों द्वारा की गई से भी यही संकेत मिलता है कि संयततम मान्यताओं के हिसाब से अधिक पाँचवी शताब्दी ई. पू. में रहे होंगे। इसी युग में भारत का गुप्त सम्राटों भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास 1 स्वर्ण युग कहा जाता । उस काल में 1.शासनकाल में विज्ञान, साहित्य तथा अन्य क्षेत्रों में बौद्धिक उत्कर्ष हुआ गतिविधियों का अद्भुत और इसकी गणना की। के भारतीय खगोलविदों ने बार इन गणनाओं, में सुधार किया की विधियों ने यह गणनात्मक प्रमुख सार लेकिन आर्यभट्ट प्रदान ‘किया था मिसाल इतनी सटीक थी कि वीं सदी वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने के पुडुचेरी की अपनी यात्रा भारतीयों की गणना के चंद्रग्रहण की अवधि “के दौरान, पाया अनुसार पा सेकंड 1765-08-03 18 कि के कम थी, जबकि उसके चार्ट ( द्वारा, रोबिअस मेयर, 1752) 68 सेकंड अधिक दर्शाते थे। आर्यभट्ट की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968-0584 किलोमीटर जो इसके वास्तविक मान कम है। यह 40,075.0167 किलोमीटर से केवल सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ एशोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था, (२००६.) गणना का आधुनिक नहीं 5-10% है, परन्तु उनके इकाइयों अनुमान की एक टि अवश्य थी। जिनका में तो में लगभग पता नक्षत्र अवधियाँ यदि समय को आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो आर्यभट्ट की गणना अनुसार पृथ्वी की अवधि स्थिर द्वारों के सन्दर्भ मैं पृथ्वी की अवधि 23 घरै 56 मिनट और 4.1 सेकंड थी। आधुनिक समय 23-56-4.091 है, इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 30 सेकंड,ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समाज रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के मे की रूप गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के जो समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति, और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी ‘के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों अनुसार यह हि गृहचक्र, वाला मॉडल प्री रोलेनिक ग्रीक खगोल विमा विज्ञान के तत्वों को दर्शाता है। आर्य भस्ट के मॉडल के अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों, की अवधि को सूर्य केन्द्रित जाता है। इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित मॉडल के चिह्न के रूप में देखा ग्रहण आर्यभस्ट ने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्ड विज्ञान से अलग, जिसमें ग्रहणों का कारक विन्दु राहू और केतु थे छम् ग्रह निस्पंद उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया तब होता करता इस की छाया सम्बर, बताया इस है प्रकार चंद्रग्रहण जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश ( द्वंद गोला अं) और पृथ्वी की के आकार ( छंद गोला, दौरान ग्रहण बाले “और विस्तार से चर्चा 38-48) और फिर ग्रहण भाग का आकार और गति के रूप में वर्णन करता है। जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढते . वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते हुए, स्थिर देखता है, ‘बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात् भूमध्य रेखा पर लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता परंतु अगला इन तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता और अस्त वजह होने के का कारण उनके उदय तथ्य की इस से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित ग्रह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरह चलायमान रहते हैं।

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक संदर्भ बिंदु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था । आर्यभट्ट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमें सूर्य और चन्द्रमा ग्रहचक्र पाया द्वारा गुति करते हैं, जो कि पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस मॉडल में, जो है पितामहा सिद्धान्त (ई- 425) की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा जाता प्रत्येक ग्रहों ‘नियंत्रित है, एक छोत्रा छोटा मंत्र (धीमा) ग्रहचक और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है चन्द्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र।

वैदिक काल के शताब्दियों के और ईसा काल की प्रारम्भिक में शुरु भारत में खगोल और गणित के क्षेत्र मे अ‌द्भुत प्रगति हुई। आर्य मरीय उस युग का हिन्दू खगोल और गणित का सबसे प्राचीन सुरक्षित ग्रन्थ है, जिसे आर्य भट्ट नामक व्यक्ति ने लिखा बनाते हैं। केवल दस बाद में लिखी गई टीकाओं तथा इस ग्रन्थ के ग्रन्थ की उदाहरणों से ही हमें कार्यभटर और उसकी कृति के बारे में जानकारी मिलती है ।

आर्यभस्ट की खगोल विज्ञान प्रणाली, औदायक प्रणाली कुहलाती थी श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय भोर होने से दिनों की शुरूआत होती थी।) – खगोल – विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर मध्यरात्रि एक द्वितीय मॉडल ( अर्ध – रात्रिका प्रस्तावित करते हैं खो गए इन्हें आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खानदाख अयाका जा सकता घूर्णन बताते हैं। कुछ आकाश परन्तु चर्चाओं से पुन: निर्मित किया थो में वे पृथ्वी के की आभासी गति का कारण सौर प्रणाली गतियां प्रतीत होता कि आर्यभस्ट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती हैं।

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आर्यभटीयमम्

आर्यभटीय प्राचीन भारतीय गणितशास्त्र की सुपरिचित सुप्रसिद्ध रचना है जिस के प्रणयन आचार्य आर्यभट प्रथम (४७६-५५०) ने किया था। यह संस्कृत भाषा में आर्या छन्द  में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति  वैज्ञानिक  तथा आर्या छन्दबद्ध होने से काव्यमय है। यह गणित शास्त्र की काव्यमय रचना बहुत रोचक है। इसे चार अध्यायों में विभक्त किया गया है । जिनमें कुल १२३ श्लोक हैं।

आचार्य आर्यभट ने अपनी इस अद्वितीय कृति में गणित के महत्वपूर्ण व कठिन सिद्धान्तों का अत्यन्त सरलतया वर्णन किया है। इनके विषय में सर्वविदित है कि सर्वप्रथम अंको में शून्य का उपयोग कैसे किया जाए इन्होने बताया । आज आधुनिक विज्ञान और गणित के सभी सिद्धान्तों का आधार शून्य ही है। यदि शून्य के आविष्कार को गणित से निकाल दिया जाए तो आज के विज्ञान द्वारा जितना भी विकास हम देख सकते हैं इसकी कल्पना करना भी असम्भव होता। न केवल शून्य के प्रयोग का महत्त्व अपितु प्रथम बार आचार्य आर्यभट ने दशमलव का अविष्कार किया। दशमलव का आविष्कार और प्रयोग कितना प्रभावशाली और गणित शास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों के प्रतिपादन में सहायक व आधार स्तम्भ है यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं।

इनके द्वारा रचित आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण गणितग्रन्थ जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन अत्यन्त विशदतया किया गया है। इस ग्रन्थ में कुल 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्तों  75 श्लोकों में खगोलविज्ञान के विशिष्ट सिद्धान्तों तथा खगोलीय यन्त्रों का भी निरूपण किया। अपने इस लघुतम ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश -विदेश में प्रचलित विभिन्न सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थापित की हैं।

इसके चार अध्यायों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है :

गीतिकापाद

गीतिकापाद अत्यन्त लघुतम मात्र 13 श्लोकों का है । इस अध्याय में शून्य के प्रयोग का सुस्पष्ट किया है। यद्यपि भारत में इससे पहले भी शून्य का प्रयोग वेदों पुराणों में उपलब्ध होता है परन्तु गणितीय सख्याओं में इस प्रकार के प्रयोग के उदाहरण प्राप्त नहीं होते। इस अध्याय में संख्याओं के एक विशिष्ट रीति से अति लघु रूप प्रदान करके दिखाया गया है। प्रस्तुत है इसका एक उदाहरण जो विकिपीडिया पर उपलब्ध है –

ख्युघृ = 43,20,000 में 2 के लिए ख् लिखा गया है और 30 के लिए य्। दोनों अक्षर मिलाकर लिखे गए हैं और उनमें उ की मात्रा लगी है, जो 10,000 के समान है; इसलिए ख्यु का अर्थ हुआ 3,20,000; घृ के घ् का अर्थ है 4 और ऋ (मात्रा) का 10,00,000, इसलिए घृ का अर्थ हुआ 40,00,000. इस तरह ख्युघृ का उपर्युक्त मान (43,20,000) हुआ।

आर्यभट ने 1, 2 ,3 आदि अंक सेख्या के द्योतक क, ख, ग आदि वर्ण कल्पना किए हैं। उक्तं चं

वर्गाक्षराणि वर्गेऽवर्गेऽवर्गाक्षराणि कात् ङमौ यः ।

खद्विनवके स्वरा नववर्गेऽवर्गे नवान्त्यावर्गे वा ॥ इति ।

क = १, ख = २, ग = ३, घ = ४, ५, च = ६, छ = ७, ज = ८, झ = ९, ञ = १०, ट = ११, ठ= १२, १३, १४, १५, १६,

थ = १७, द = १८, ध = १९, न = २० = २१, फ = २२ व २३ भ = २४, म = २५, य = ३०, र = ४०, ल ५० व= ६०, श= ७०, प= ८०, स= ९०,

ह = १०० ।

क = १, कि = १००, कु = १००००, कृ= १००००००, क्ल= १००००००००, के = १००००००००००, कै= १००००००००००००, को = १००००००००००००००,

कौ = १००००००००००००००००, ख = २, खि= २००, खु = २००००, खु = २००००००, खुल = २००००००००, खे= २००००००००००, खै = २००००००००००००, खो = २००००००००००००००, खौ = २०००००००००००००००० इसी प्रकार आगे की अंक संख्याएँ दी गयी हैं।

कुछ पाश्चात्य विद्वान् आर्यभट्ट की इस अंक संख्या पर से अनुमान करते हैं कि उन्होंने यह संख्याक्रम ग्रीकों से लिया है। चाहे जो हो, पर इतना निश्चित है कि आर्यभट्ट ने पटना में, जिसका प्राचीन नाम कुसुमपुर था, अपने अपूर्व ग्रन्थ की रचना की है। इनकी गणितविषयक विद्वत्ता का निदर्शन यही है कि उन्होंने गणितपाद में वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल एवं व्यवहार श्रेणियों के गणित का सुन्दर विवेचन किया है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति के सिद्धान्त इस गीतिपाद नामक अध्याय के13 श्लोकों में भर दी हैं।

गणितपाद

गणितपाद नामक अध्याय में 33 श्लोक हैं। जिनमें आर्य अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित सम्बन्धित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसी अध्याय में दशमलवपद्धति की इकाइयों के नाम तथा प्रयोग के नियम बताए गए हैं। तथा इसी अध्याय में वर्गक्षेत्रफल, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णों के संपात से समांतर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं।

कालक्रियापाद

कालक्रियापाद नामक तृतीय अध्याय में 25 श्लोक हैं । और यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है।

गोलपाद

गोलपाद नामक आर्यभटीय का अंतिम अध्याय है जिसमे  50 श्लोक हैं। इस अध्याय में विभिन्न खगोलीय पिण्डो की गति तथा उनके स्वरूप के विषय मे वर्णन किया गया है । जो आकाशीय पिण्डों की घूर्णन गति के विषय में तथा सूर्य की प्ररिक्रमा के सिद्धान्त का सुस्पष्ट वर्णन करता है।

कुछ विद्वान आर्यभट के कुछ अन्यान्य ग्रन्थों का वर्णन भी यथा कथंचित करते है। जो कि वर्तमान समय में अनुपलब्ध है। अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आर्यभटीय आचार्य द्वारा अद्वितीय असाधारण ग्रन्थ है। इसके बिना आज के विज्ञान का विकास सर्वथा असम्भव था। अतः भारतीय ज्ञान परम्परा के इस अद्वितीय ग्रन्थ का अध्ययन हम सबको अवश्य करना चाहिए ।

सन्दर्भ ग्रन्थ-

1 भारतीय ज्योतिष का इतिहास , चौखम्बा प्रकाशन , वाराणसी

2 विकिपीडिया

3 संस्कृत वाङ्‌मयान्तः प्रवेशिका, डा. सोमनाथ दास , पुरी, ओडिशा, द्वितीय संस्करण 2019

4 . भारतीय ज्योतिष , नेमिचन्द्र शास्त्री , भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली 110003 , 48th संस्करण 2011

(सौजन्य-नेहा रानी, सिमरन, अंकिता भट्टी, शिक्षा शास्त्री सत्र- 2022-23, के.सं. विश्ववि. वेदव्यासपरिसर बलाहर हि.प्र.)

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