पुनर्वसु आत्रेय
आचार्य पुनर्वसु आत्रेय आयुर्वेद चिकित्सक
पुनर्वसु आत्रेय (आयुर्वेद चिकित्सक) | Punarvasu Atreya (Ayurveda doctor) – आयुर्वेद ” आयुः + वेद शाब्दिक अर्थ : ‘आयु का वेद’ या ‘दीर्घायु का विज्ञान । आयूर्वेद मुख्य और सबसे श्रेष्ठ चिकित्सा प्रणाली है । आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है । आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ (चरक संहिता १/४०)
जब भी हम आयुर्वेद के क्षेत्र की ओर देखते हैं तो हमें धन्वंतरि , चरक , अश्विनि कुमारों आदियों के नाम हमें सुनने को मिलाते हैं । उन में से ही एक थे पुनर्वसु आत्रेय । अत्रि ऋषि के पुत्र होने के कारण इन्हें पुनर्वसु आत्रेय कहा जाता है। अत्रि ऋषि स्वयं आयुर्वेदाचार्य थे।
यह आयूर्वेद की परंपरा ब्रम्हा जी से चलके आ रही है इसका प्रमाण हमें इस श्लोक के माध्यम से मिलता है :-
ब्रम्हणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेदं प्रजापति:
जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्तत: ।
अश्विभयां भगवाञ्शक: प्रतिपेदे ह केवलम् ।।
ऋषश्च भरद्वाज्जगृहुस्तन्मुनेर्वच: ।
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इसके अनुसार ब्रम्हा ने प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को और उन अश्विनीकुमारों ने इंद्र को और इंद्र ने यह ज्ञान भरद्वाज ऋषि को और भरद्वाज ऋषि ने आगे यह आयुर्वेद का ज्ञान ऋषियों को प्रदान किया ।
सम्भवतः उन ऋषियों में से ही एक थे पुनर्वसु आत्रेय जिन्होंने अपने शिष्यों को आयुर्वेद की शिक्षा हस्तांतरित की थी ।
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पुनर्वसु आत्रेय का जीवन वृतान्त
महान् आयुर्वेदाचार्य पुनर्वसु आत्रेय के बारे में माना जाता है कि वे अत्रि मुनि के पुत्र तथा भरद्वाज मुनि के शिष्य थे। परन्तु यह स्पष्ट रूप से नही कहा जा सकता है की पुनर्वसु आत्रेय ऋषि ने साक्षात रूप से भरद्वाज ऋषि से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया हो । क्योंकि इसका प्रमाण हमें कही पे भी नही मिलता है । हमें बस इतना सुनने को मिलता है कि भरद्वाज ऋषि ने अन्य ऋषियों को आयुर्वेद का ज्ञान दिया था । परन्तु यहां स्पष्ट रूप से ये नही कहा गया है कि आत्रेय को भी उन्होंने ही शिक्षा दी है , परन्तु हम एक अनुमान से यह कह सकते हैं कि पुनर्वसु भी उन ऋषियों में से एक थे जिनको भरद्वाज ऋषि ने आयुर्वेद की शिक्षा दी थी तो दूसरे पक्ष में हम यह भी कह सकते हैं की पुनर्वसु आत्रेय ने अपने पिता अत्रि ऋषि से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया होगा । क्योंकि प्राचीन काल में पिता से भी शिक्षा ग्रहण करने की परंपरा थी एसा हमें कई धर्मशात्रों में देखने को मिलता है । क्योंकि चरक संहिता में ” आयर्वेदसमुत्थानीय रासायनपाद ” का जो व्याख्यान है उसके अनुसार भृगु , अंगिरा , अत्रि , वशिष्ट , कश्यप इत्यादि ऋषयों ने स्वयं इंद्र के पास जाके यह ज्ञान प्राप्त किया था । और फिर सम्भवतः अत्रि ऋषि ने अपने शिष्यों और अपने पुत्र आत्रेय को यह ज्ञान प्रदान किया होगा ।
किसी – किसी स्थान पर पुनर्वसु आत्रेय के लिए भी अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है जिससे कई शंकायें उत्पन होती है कि वास्तव में एक ही आत्रेय थे या बहुत आत्रेय थे । जैसे आत्रेय के लिए सहिंता में तीन नाम प्रयुक्त हुए हैं पुनर्वसु आत्रेय , कृष्णात्रेय , तथा भिक्षु आत्रेय ।
वस्तुतः सहिंता के प्रत्येक स्थान पे हमें पुनर्वसु आत्रेय का ही नाम देखने को मिलता है । परन्तु चरक सहिंता के एक स्थान पर संग्रहश्लोक में कृष्णात्रेय शब्द का भी प्रयोग हुआ है ।
किंतु सम्भवतः प्रतिसंस्कर्ता द्वारा प्रक्षिप्त होने से इसविषय में अधिक कुछ भी नही कहा जा सकता है । भेल संहिता में भी दो तीन बार कृष्णात्रेय का नाम आया है और महाभारत में भी कृष्णात्रेयश्चिकित्सम् यह कहकर कायचिकित्सा के आचार्य कृष्णात्रेय का भी उल्लेख आया है । जो शल्य कार्य करते थे । पुनर्वसु के विषय में आत्रेय उसका नाम उसके पिता अत्रि होने के कारण है ना कि गोत्रविशेष के कारण । एसी दूसरी स्थिति में ये भी कहा जा सकता है कि पुनर्वसु नक्षत्र का नाम है और कृष्ण पुकार का नाम है और तीसरी परिस्थिति में ये भी कह सकते हैं कि आत्रेय एक बौद्ध भिक्षु थे , इससे ये भी कहा जा सकता है कि पुनर्वसु , और कृष्ण दोनो अलग अलग है और भिक्षु आत्रेय भी कोई अन्य व्यक्ति थे। पुनर्वसु आत्रेय के लिए चान्द्रभागी व चान्द्रभागा विशेषण का प्रयोग किया है । जिससे ये भी कहा जा सकता है कि पुनर्वसु आत्रेय की माता का नाम चन्द्रभागा था । पुनर्वसु के लिए ब्रम्हर्षि विशेषण का भी प्रयोग हुआ है जिससे ये पता चलता है की वे ब्राम्हण थे जिन्हें अग्निहोत्री कहा गया है ।
आत्रेय नामक किसी आचार्य का सम्बंध तक्षशिला विश्वविद्यालय के साथ भी जोड़ा जाता है जिससे जीवक ने आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की थी परंतु ये प्रमाणिक नही प्रतीत होता है क्योंकि कहीं पर कहा जाता है कि जीवक ने काशी में शिक्षा ग्रहण की थी । यदि यह मान भी लिया जाए कि वे वही आत्रेय है तो उसके खंडन के विषय में हम यह भी कह सकते हैं कि वे आत्रेय शल्यतंत्र में प्रसिद्ध थे जिससे जीवक ने शिक्षा ग्रहण की थी परंतु पुनर्वसु आत्रेय तो कायचिकित्सा के विशेषज्ञ थे , और इस सम्प्रदाय के प्रवक्ता भी थे । इसके साथ चरक ने अपनी चरक संहिता में कहीं भी तक्षशिला का उल्लेख नही किया है । यदि पुनर्वसु आत्रेय का सम्बंध तक्षशिला से होता तो वे अवश्य ही कहीं ना कहीं किसी न किसी स्थान पर इसका उल्लेख अवश्य ही करते परन्तुं हमें एसा कहीं पे भी इसका उल्लेख नही मिलता है ।
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इसके अतिरिक्त भरद्वाज को चरकसंहिता की कई परिषदों में भाग लेते हुए दिखाए गए है । एक स्थल पे आत्रेय और भरद्वाज के बीच शास्त्रचर्चा भी करते हुए दिखलाया गया है इसमें भरद्वाज आत्रेय के विपक्षी थे और अंत में आत्रेय ने उनको शिक्षा दी थी । सम्भवतः वह कोई और थे क्योंकि शास्त्रों में अन्य अन्य भरद्वाजों का उल्लेख हुआ है। जैसे किसी स्थान पर कुमारशिरा भरद्वाज का नाम आया है वे भी कोई अन्य आचार्य प्रतीत होते हैं ।
आत्रेय एक महान् विद्वान् तथा योग्य शिक्षक थे। उनके योग्य शिष्यों ने उनके ज्ञान का प्रसार देश–विदेश में किया था । उन्होंने चिकित्सा–शास्त्र पर अनेक ग्रंथ लिखे, जिनमें से उनके ग्रंथ ‘आत्रेय संहिता’ में 46,501 श्लोक हैं। यह चिकित्सा–विज्ञान का एक वृहद् ज्ञानकोश है। इसके आरंभ में ही आत्रेय ने बतलाया है कि विषय इतना वृहद् है कि एक जन्म में इसका संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना असंभव है। आत्रेय ने समाज को रोगों का ज्ञान कराया, साथ ही नाड़ी व श्वास गति पर प्रकाश डाला। उन्होंने रोगों को साध्य व असाध्य वर्ग में बाँटा। आत्रेय के नाम पर लगभग 30 आयुर्वेदिक योग उपलब्ध हैं। इनमे वल तैल एवं अमृताद्य का निर्देश चरक संहिता में प्राप्त है ।आत्रेय ने समाज को रोगों का ज्ञान कराया। साथ ही यह परामर्श भी दिया कि किस तरह से रोगों के उपचार की चेष्टा करनी चाहिए। उन्होंने हवा, मिट्टी, मीठे, कसैले, तीखे स्वाद के शरीर पर प्रभाव की भी व्याख्या की। उन्होंने पानी के गुणों का भी वर्णन किया था । तथा गरम व ठंडे पानी के प्रभावों में अंतर समझाया था । उन्होंने विभिन्न अनाजों, फलों, सब्जियों व मदिराओं के गुण–अवगुणों की विवेचना भी की थी । पशु–पक्षियों में मांस के पौष्टिक तत्त्वों को समझाया और सेवन विधि का ज्ञान कराया तथा वात–पित्त–कफ की वैज्ञानिक विवेचना की। आत्रेय ने आयुर्वेद को वैज्ञानिक स्वरूप दिया। अंधविश्वासों का खंडन करते हुए उन्होंने रोगों का कारण असावधानी बताया तथा मुक्ति के लिए उपचार सुझाए।
चरक परम्परा के अनुसार, आयुर्वेद के छह सम्प्रदाय मौजूद थे, जिन्हें ऋषि पुनर्वसु आत्रेय के शिष्यों ने स्थापित किया था। उनके प्रत्येक शिष्य– अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि ने एक–एक संहिता की रचना की थी ।
अग्निवेश या वह्रिवेश आयुर्वेदाचार्य थे जिन्होंने अग्निवेशतंत्र संहिता की रचनाकी। अग्निवेश, पुनर्वसु आत्रेय के सबसे अधिक प्रतिभाशाली शिष्य थे। इनके अन्य सहपाठी भेल, जतूकर्ण, पराशर, क्षीरपाणि एवं हारीत थे। अग्निवेशतंत्र संहिता का ही प्रतिसंस्कार चरक ने किया तथा उसका नाम चरक संहिता पड़ा। आज भी यह सहिंता ग्रन्थ आयुर्वेद के क्षेत्र में प्रधान है । अग्निवेश के नाम से नाड़ी परीक्षा तथा हस्ती शास्त्र भी प्रसिद्ध है । पुनर्वसु आत्रेय के शिष्यों में सर्वप्रथम अग्निवेश का नाम आता है । जिन्होंने आत्रेय के उपदेशों को चरक संहिता इस तंत्र के रूप में निबद्ध किया । इसीकारण इस ग्रन्थ क् मुख्य अथवा प्रारंभिक नाम अग्निवेश तंत्र है इनकी बुद्धि अत्यंत विस्तृत और कुशाग्र थी । आयुर्वेद का लौकिक उपदेश भी आत्रेय के काल में ही हुआ है ।
उस समय लोग कई रोगों से ग्रसित हो रहे थे और उपचार के कोई साधन नही थे ।
रोगों के उपचार के लिए आयर्वेद का प्रसार हुआ ।
प्राचीन काल में जब आयुर्वेद का प्रचार प्रसार हुआ तो आयुर्वेद तीन संप्रदायों में विभाजित हुआ। जिनमें आत्रेय ऋषि का भी एक महत्वपूर्ण स्थान था।तीन संप्रदाय इस प्रकार हैं –
(१)आत्रेय संप्रदाय : इस संप्रदाय में अग्निवेश आदि ने अपनी संहिताए लिखी ।इस संप्रदाय की संहिता कायचिकित्सा प्रधान हैं।
(२) धानवंत्र संप्रदाय: इस संप्रदाय में सुश्रुत आदि ने अपनी संहिताएं लिखी। इस संप्रदाय की संहिता में शल्य तंत्र की प्रधानता देखी जाती है ।
(३) काश्यप संप्रदाय: इस संप्रदाय में कश्यप आदि ने अपनी संहिताएं लिखी। इस संप्रदाय की संहिता कौमारकृत्य प्रधान है।
इन संप्रदायो से पूर्व भी ब्रह्म संहिता इंद्र संहिता तथा भास्कर संहिता के अस्तित्व का उल्लेख प्राप्त होता है।
पुनर्वसु आत्रेय आयुर्वेद के महान विद्वानों में से एक हुए हैं ।उनका संप्रदाय आयुर्वेद के तीन संप्रदायों में से एक था।ऋषि आत्रेय या आत्रेय पुनर्वसु ऋषि अत्रि के वंशज तथा महान ऋषि थे।आत्रेय की सिद्धियां पुराणों ,वेदों इत्यादि में वर्णित हैं।
आयुर्वेद को वैज्ञानिक स्वरूप देने वाले महान ऋषि आत्रेय हुए।अंध विश्वासो का खण्डन करते हुए उन्होंने रोगों का कारण असावधानी बताया।तथा रोगों की मुक्ति के लिए सुझाव दिए।जानकारी के अनुसार ये आयुर्वेद के एक महान आचार्य हुए।
पुनर्वसु पद्धति चरक के अनुसार आत्रेय पुनर्वसु परम्परा का विवेचन
आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के संदर्भ में सर्वप्रथम ज्ञान का उल्लेख चरक मत के अनुसार मृत्यु लोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ अगिवेश का नाम उल्लेख , पुनर्वसु आत्रेय इंद्र द्वारा प्राप्त समस्त आयुर्वेद का जिन ऋषियों को उपदेश दिया उनमें आत्रेय प्रमुख थे जिन्होंने चिकित्सा ज्ञान का प्रसार भारत वर्ष में किया था । उनका नाम पुनर्वसु था । किंतु वह संसार में आत्रेय के नाम से अधिक विख्यात हुए उनका समय 8वी शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है । आत्रेय नाम से ज्ञात होता है कि वे अत्रि ऋषि के वंशज या पुत्र थे । पुनर्वसु आत्रेय अत्रि ऋषि के पुत्र व भरद्वाज के शिष्य थे । वह आयुर्वेद के चिकित्सा विज्ञान के महान विद्वान और योग्य अध्यापक थे । उनके योग्य शिष्य चिकित्सा जगत में बहुत प्रसिद्ध हुए और उन्होंने अपने गुरु से प्राप्त ज्ञान का प्रचार प्रसार देश विदेश में किया आयुर्वेद का लौकिक उपदेश आत्रेय के काल से ही पारम्भ हुए थे । इस समय का जन जीवन रोग ग्रस्त था और उपचार की कोई व्यवस्था नही थी । रोग ग्रस्त जीवन से मुक्ति पाने के लिए आयुर्वेद का विस्तार करके त्रिस्कन्ध संहिताओं का निर्माण किया गया । वे तीन स्कंद इस प्रकार से हैं ।
1. हेतु स्कंद ।
2. लिंग स्कंद ।
3. औषध स्कंद ।
सारांश
आयुर्वेद शास्त्र का प्रादुर्भाव और प्राणी मात्र के कल्याण की पवित्र भावना से ही हुआ है । इस शास्त्र की प्राचीन अध्ययन व्यवस्था के अनुसार जो व्यक्ति इस शास्त्र का सम्यक् रीति से अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर लेता था वह विद् ज्ञाने इस धातु अर्थ के अनुसार वैद्य की पदवी प्राप्त कर लेता था । तथा इसका दीर्घ काल तक मनन करते हुए इसके समग्र अध्ययन एवं अध्ययन कार्य को संपादित करने की जो उच्च योग्यता प्राप्त कर लेता था उसे आयुर्वेद में आचार्य की पदवी प्रदान की जाती थी । इसी प्रकार प्राणाचार्य भिषगाचार्य उपाधियां भी चिकित्सक का कार्य कुशलता एवं योग्यता के आधार पर प्रदान की जाती थी । किंतु उक्त सभी कोटि के चिकित्सकों को उनके कार्य क्षेत्र में कार्य करने की अनुमति प्रदान करने से पूर्व महर्षियों द्वारा जिस दायित्वपूर्ण ज्ञान का उन्हें पाठ पढ़ाया जाता था वही उन चिकित्सकों की चिकित्सा पद्धति कही जाती है । आत्रेय पुनर्वसु पद्धति एवं उनसे सम्बंधित चिकित्सा पद्धति का ज्ञान हुआ ।
प्रमाणिक ग्रन्थ :- चरक संहिता , भेल संहिता ।
सौजन्य :- कार्तिक शर्मा , दिपांक्षा , नरेन्द्र कुमार ( शिक्षा शास्त्री सत्र-2022-23)
यह भी देखें-
भारत में संस्कृत विश्वविद्यालय | Sanskrit Universities in India
जन्मदिन की बधाई संस्कृत में | Birthday wishes message in sanskrit
सूक्तियाँ | Sanskrit Suktiyan (Proverb)
संस्कृत में गिनती (संख्याज्ञान)