VarahamihiraVarahamihira
  • वराहमिहिर के जीवनी , वंश परिचय , काल , कृति आदि विशद भावे जानने का अवसर।
  • उनकी दार्शनिक , पारंपरिक एवं वैज्ञानिक मत जानने का अवसर।
  • उनकी प्रसिद्धि के कारण को जानने का अवसर।

वराहमिहिर

वराहमिहिर-महान भारतीय खगोल शास्त्री | Varahamihira – The Great Indian Astronomer- आचार्य वरहमिहिर भारतीय ज्योतिषविद्या के उज्जल रत्न है। उनका ज्योतिषशास्त्र में वैसा ही महनीया स्थान है जैसा व्यकरणतंत्र में पतंजलिका , भारतीय दर्शन में शंकराचार्य का तथा साहित्य विद्या के क्षेत्रे में आचार्य आनंदवर्धन का। वे त्रिस्कोंधज्ञ आचार्य है , उन्होंने ज्योतिष में ‘बृहतसंहिता’ और फलित ज्योतिष में बृहज्जातक उनकी प्रमुख रचनाएं है।

 वराहमिहिर की यह दृढ़ मान्यता एवं विश्वास रहा है कि ज्योतिषशास्त्र में पारंगत होने के लीये ऋषि की अन्त: प्रज्ञा एवं दर्शन अपेक्षित है , जो ऋषि नहीं है वह मनसा भी ज्योतिषरूपी महासागर के पार नहीं पहुंच सकता –

                     न त्वस्य कालपुरुषाख्यमहार्णवस्य

                    गच्छेत् कदाचिदनृषिर्मनसापी पारम् ।

                    ऐसी ही धारणा अभिनवगुप्त के नाट्यगुरु भट्टतौत की कवि के विषय में रही है। जो कहते है–

                                नातृषि: कविर्भवति ऋषिश्च किल दर्शनात् ।

 इससे ज्योतिषशास्त्र की श्रेष्ठता , गम्भीरता और लोकत्तरता का परिचय मिल जाता है। इसलिये फलित ज्योतिष के क्षेत्र में फलादेश की लिये ज्योतिर्विद् की अन्त: प्रज्ञा का सम्मान करने वाले वैज्ञानिक विश्लेषण में कभी रूकावट नहीं बन सकी। उन्हांने सत्य का उदघाटन करते हुए कभी कभी परंपरागत मान्यताओं का खण्डन भी किया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है राहु और केतु को वास्तविक ग्रह न मानकर उन्हें केवल छायाग्रह ही मानना। इसी प्रकार पाराशरोक्त विंशोत्तरीदशा का अस्वीकार , नष्टजातक की कुंडली का निर्माण , आयुर्दाप सम्बन्धी अपना स्वतंत्र मत , चतुग्रही योग को प्रव्रज्या योग बताना आदि अनेक स्थलों में वरहमिहिर की परम्परा से भिन्न मान्यता रही है।

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                  ऐसे ऋषितुल्य आचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर इस प्रमाणिक ग्रन्थ को लिखकर ग्रंथकार डा गिरिजाशंकर शास्त्री ने ज्योतिषशास्त्र के पंडितों तथा इस शास्त्र में रूचि रखने वाले विद्वजोनो का उपकार किया है। लेखक ने वराहमिहिर के ज्योतिषसिद्धान्त को इतिहासिक पृष्ठभूमि में देखकर उनके विकासक्रम को भी निर्देशित करने का सफल प्रयास किया है , लेखक का संपूर्ण विवेचन तर्क शुद्घ और प्रमाण पृष्ठ है ।

                 यह बड़ी प्रसन्नता का विषय है की ज्योतिष शास्त्र के प्रति वराहमिहिर का दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। उन्हानें अपने साहित्य में प्रसंगवस उदारता पूर्वक अनेक ज्योतिषियों का नामोल्लेख स्थान स्थान पर लिया है। इस विषय में वराहमिहिर ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुऐ कहा है ज्योतिषशास्त्र वेदांग दृष्टादृष्ट का ज्ञापक है।

      हमारे भारत देश में अनेक योगियों , ऋषियों , मुनियों , विद्यानों , महान पुरुषों और महात्माओं ने जन्म लिया है । जिन्होंने भारत को सम्मानपूर्ण अखण्डित स्थान दिलाया है इन महात्माओं से एक भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषज्ञ , गणितज्ञ एवं खोगोलांज्ञ वराहमिहिर अन्यतम । यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक स्थान प्राप्त किया है ।

जन्मस्थान एवं वंश परिचय

         वराहमिहिर के जन्मस्थान एवं वंश परिचय को लेकर भविष्यतपुराण , प्रबन्धचिंतामणि और जैन अगमों में चित्र–विचित्र कथाएँ मिलती हैं । वराहमिहिर ने अपने नाम का उल्लेख अपनी रचनाओं में अनेक स्थांतों पर करके , अपनी रचनाओं पर अपनी स्वयम की मोहर लगा दी है । यथा —

  1. वरमिति वरहमिहिरो ददाति निर्भतनर: करणम्
  2. युक्तायुक्तविचारै: वराहमिहिरश्चकारमतिम् ।
  3. भूयो वरहमिहिरास्य न युक्तामतेत । कर्तुं समासकृदसाविति तस्य दोष: ।।
  4. चक्रे वराहमिहिरः प्रणिपत्य साधून् सम्यग्विवहपटलम्।

“मिहिर” का शाब्दिक अर्थ होता है – सूर्य । “मिहिरः सूर्यबुद्ध्योः” अर्थात् मिहिर सूर्य और बुद्धि अर्थ में प्रयोग होता है । भगवान् सूर्य की ही कृपा से आदित्यदास नामक पिता एवं इन्दुमति नामक माता की कोख से चैत्र शुक्ल दशमी को दोपहर बारह बजे अभिजित मुहूर्त में मिहिर ने जन्म लिया । वराहमिहिर ने बृहदज्जातक के उपसंहारध्याय में अपने बारे में इस प्रकार कह ।

             आदित्यदासतनयस्तद्वप्रबोधः कापित्थके सवित्रूलब्धनरप्रसदः ।

            आवन्तिको मुनिर्मतान्यवलोक्य सम्यक्, घोरां वाहमिहिरो रुचिरां चकार ।।

काल :

    किसी भी लेखक या रचनाकार के जन्म अथवा रचनाकाल को प्रमाणित करने के लिये दो प्रकार के प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है । प्रथम वाह्य प्रमाण एवं आन्तरिक प्रमाण । ग्रन्थ के आन्तरिक प्रमाणों के अभाव में हमें बह्यप्रमाणों का साक्ष्य मानना पड़ता है ।

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वाह्य प्रमाण :

          वराहमिहिर उस समय पैदा हुए जब भारत स्वर्णमयी युग में था । भारत में साहित्य , संस्कृति , दर्शन , विज्ञान, कला उस समय अपने चारमोतकर्ष विकास में था । ऐतिहासिक दृष्टि से विक्रमादित्य के नवरत्नों में वराहमिहिर का नाम आया है । कालिदास विरचित ज्योतिर्विदाभरण का यह श्लोक सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा है ।

                धन्वन्तरिः क्षपणकामरसिंहशंकुवेतालभट्टघटकखर्परकलिदासाः ।

               ख्यातो वरहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।।

वराहमिहिर का कृतित्व :

                    ज्योतिष जगत में वराहमिहिर ही एकमात्र ऐसे विद्वान हुऐ हैं जिनकी लेखनी ने ज्योतिष के तीनो स्कन्धो पर साहित्य का सृजन किया । प्राप्त प्रमाणों एवं जनशुतियों के आधार पर उन्होंने कुल नव ग्रन्थों की रचना की है ।

कृतियों की सूची :

  • पंचसिद्धान्तिका
  • बृहदसंहिता
  • समाससंहिता
  • बृहद्विवाहसंहिता
  • बृहज्जातक
  • लघुजताकम
  • दैवज्ञ वल्लभा
  • लग्न वाराही
  • योग यात्रा
  •  पंचसिद्धांन्तिका :

           भारतीय ज्योतिष–विद्वान के इतिहास में पंचसिद्धांन्तिका का विशेष महत्त्व है । आचार्य के द्वारा रचित इस ग्रन्थ में गणित ज्योतिष पांच विभिन्न सिद्धान्त वराहमिहिर के काल में प्रचलित थे । यह ग्रन्थ कुल १८ अध्यायों में विभक्त है । जिसमें (१) पैतामह (२) वसिष्ठ (३) रोमक (४) पौलिश ओर (५) सौर (सूर्य) इन पांच सिद्धान्तों का सारांश दिया गया है । पंचसिद्धान्तिका न होती तो गणित ज्योतिष के इतिहास का हमारा ज्ञान बहुत अधूरा अपूर्ण रह जाता । कुछ विद्वान ऐसा भी मानते है कि पंचसिद्धान्तिका की रचना उस समय हुई जब वराहमिहिर यवन देश में थे । विद्वानो की यह मान्यता है की यही से भारतीय ज्योतिष विदेशों में फ़ैला ।

बृहदसंहिता :

        संहिता ग्रन्थों की शृंखला में यह सबसे बड़ा प्रमाणिक व सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ है । यह वराहमिहिर की सबसे प्रौढ़ च अंतिम रचना मानी जाती है , क्योंकि इसमें स्वयम लेखक ने अपनी पूर्ववत्नी अनेक रचनाओं का जगह – जगह पर उल्लेख किया है । यह ग्रन्थ कुल १०७ अध्यायों में विभक्त है । यह ग्रन्थ समग्र भारतीय ज्योतिष – शास्त्र का कीर्तिस्तम्भ है । इसमें कुल २७९३ श्लोकों के माध्यम से विद्वान लेखक ने अपने ज्ञान को मुखरित किया है । बृहदसंहिता ज्योतिष जगत का सर्वाधिक प्रख्यात ग्रन्थ है । बृहदसंहिता का सारे टीका विश्व में प्रसिद्ध हो गेया था ।

समास संहिता :

           वराहमिहिर का समास संहिता नामक एक अन्य अप्रकाशित ग्रन्थ है । प्रसिद्ध टिकाकर उत्पल भट्ट ने ऐसा संकेत किया है । अलबेरुनी के अनुसार यह बृहदसंहिता का ही संक्षेप रूप रहा होगा । कुछ विद्वानों का मत है की बृहज्जातक व लघुजातक की तरह ही बृहतसंहिता व समास संहिता भी स्वतंत्र रचनायें है । समास संहिता का प्रकाशन अभी कंही से भी नंही हुआ है , परन्तु बृहदसंहिता में अनेक जगह स्वयम इन्होंने “समस्संहिता” का उल्लेख किया है ।

बृहद्विवाह पटल :

             बृहदसंहिता के प्रथम अध्याय उपनयनाध्याय के श्लोक १० के आधार पर इस ग्रन्थ का नामोल्लेख मिलता है । परवर्ती अनेक विद्वानों ने इनके इस ग्रन्थ की चर्चा की है , परन्तु यह ग्रन्थ भी अभी तक अप्रकाशित है ।

बृहद्जातक :

            होरा–शास्त्र के जातक ग्रन्थों में बृहद्जातक का विशिष्ठ स्थान है । जातक ग्रन्थों में इसका नाम बड़े आदर से लिया जाता है तथा इस ग्रन्थ के अनेक स्थानों से अनेक प्रकाशन हुये है । बृहद्जातक कुल २८ अध्यायों में विभक्त है , जिसमें ग्रह – नक्षत्र , राशि , दशाओं , अन्तर्दशाओं अष्टक वर्ग इत्यादि विभिन्न विधाओं द्वारा फल कथन की विशिष्ट परंपराएं निर्दिष्ट है । इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर ४०९ श्लोकों की रचना हुई है । अपने विचारों के अतिरिक्त इन्होंने अन्य पूर्वाचार्यों के मतों को भी उद्धृत करते हुये इस ग्रन्थ की शोभा में वृद्धि करते हुये उदार मनोवृति का परिचय दिया है ।

लघुजातकम :

          नाम की समानता के कारण बृहद्जातक का लघु संस्करण है , यह उसके नाम से ही प्रतीत होता है । यह आचार्य का फलित ज्योतिष पर स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसमें कुल १७ अध्यायों का विवेचन १७७ श्लोकों में किया गया है । जातक ग्रन्थों में इसका लघु स्वरूप होने से इसका नाम लघुजातकम है । यह सम्भव है की पहले लघुजातक की रचना की गई हो ओर बाद में विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट करने हेतु उसको बृहद स्वरूप देकर “बृहद्जातक” ग्रन्थ की रचना की हो । इस लघु ग्रन्थ को हृदयंगम करने से कोई भी मनुष्य ज्योतिष – शास्त्र का सिद्धहस्त विद्वान बनने में समर्थ हो सकता है ।

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लग्न वाराही :

        यह लघु पुस्तिका पांच छोटे अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में पुरुष जातक के लग्न को लेकर फलादेश दिया गया है । तीसरे में योग , चौथे में प्रश्न विचार तथा पांचवां प्रकरण गर्भिणी प्रश्न विचार पर है । इस अति लघुपुस्तिका में कुल ४९ श्लोक है । यह प्रकाशित है , और टीका सहित उपलब्ध है ।

योग यात्रा :

    वरहमीहीराकृत “योगयात्रा” नामक ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । इन्होंने ने अपने साहित्य में अनेक जगह यात्रा ग्रन्थ का उल्लेख किया है । बम्बई विश्वविद्यालय से पं वसन्त कुमार ने इनके तीन यात्रा ग्रन्थों पर सन् १९५२ में आलोचनात्मक शोध–कार्य किया । यह ग्रन्थ भी अब तक अप्रकाशित है ।

वैज्ञानिक विचार तथा योगदान :

                  यह ज्योतिषाचार्य वेदों के ज्ञाता थे मगर वह अलौकिक में आंखो बंद करके विश्वास नही करते थे। उनकी भावना और मनोवृति एक वैज्ञानिक की थी। अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिक आर्यभट्ट की तरह उन्होंने भी कहा की पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसा है जो चीजों की जमीन के साथ चिपकाये रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते है। लेकिन उन्होंने एक बडी गलती भी की। उन्हें विश्वास था कि पृथ्वी गतिमान नहीं है।

                        आचार्य ने पर्यावरण विज्ञान ( इकालोजी) , जल विज्ञान (हाइड्रोलॉजी) , भूविज्ञान (जिओलॉजी) के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की। उनका कहना था कि पैधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं। वैज्ञानिक जगत द्वारा उस पर ध्यान दिया जा रहा है। उन्हाने लिखा भी बहुत था। संस्कृत व्याकरण में दक्षता और छंद पर अधिकार के कारण उन्हने स्वयं को एक अनोखी शैली में व्यक्त किया था। अपने विशद ज्ञान और सरस प्रस्तुति के कारण उन्हने ‘खगील’ जैसे शुष्क विषयों की भी रोचक बना दिया है जिसमे उन्हें वहुत ख्याति मिली। उनकी पुस्तक पंचसिद्धान्तिका ( पंचसिद्धांत) , वृहत्संहिता, वृहज्जातक , ( ज्योतिष) ने उन्हें फलित ज्योतिष में बही स्थान दिलाया है जो राजनीति दर्शन में कौटिल्य का, व्याकरण में पाणिनि का है।

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त्रिकोणमिति :

              निम्नलिखित त्रिकोणामितीय सूत्र वराहमिहिर ने प्रतिपादित किये है।

              Sin2 x + cos2 x =1

         = Sin x = cos (r/2–x)

                     = 1–cos2x/2 = sin2 x

                               वराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारिणी को और अधिक परिशुद्धत वनाया।

अंकगणित :

            वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं को बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया।

संख्या सिद्धान्त :

            वराहमिहिर सैख्या– सिद्धान्त नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता है जिसके वारे में वहूत कम ज्ञान है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाता है। प्राप्त ग्रन्थ के वारे में पुराविदो का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित। त्रिकोणमिति के साथ साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है।

संदर्भ ग्रन्थ सूची :

  • डा. भोजराज द्विवेदी(ज्योतिषाचार्य), आचार्य वराहमिहिर का ज्योतिष में योगदान , रंजन पब्लिकेशन दरियागंज , 2002
  •  श्रीअच्युतानंद झा शर्मणा , बृहतसंहिता , चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी , 1997
  • विश्वनाथ झारखंडी , भारतीय ज्योतिष , हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 2002

सौजन्य-

चिन्मयी दास, हेमांगिनी साहु, प्रियंका प्रियदर्शनी पाणी (के.सं. विश्वविद्यालय वेदव्यास परिसर शिक्षाशास्त्री प्रथमवर्ष सत्र- 2022-23)

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