ब्रह्मगुप्तब्रह्मगुप्त

महर्षि सुश्रुत

  1. प्रस्तावना
    1. सुश्रुत परिचय
    1. सुश्रुत का जीवनवृत
    1. सुश्रुत के ग्रन्थ
    1. शल्य चिकित्सा
    1. सुश्रुत संहिता की टीकाएँ

महर्षि सुश्रुत (आयुर्वेदाचार्य) | Maharishi Sushrut (Ayurvedacharya)- विश्व के विद्वानों ने स्वीकार किया है कि वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है तथा उनमें रोग, किटाणु, औषधियों और मंत्रों का वर्णन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। अतएव चरक, सुश्रुत प्रभृति आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपांग माना है- ‘इह खलु आयुर्वेदो नामोपांगमंथर्ववेदस्यानुत्पाद्येव प्रजा: श्लोकशत  सहस्त्रमअध्यायसहस्त्र च कृतवान् स्वयंभू:’ (सु.सू.अ.१), ‘चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानामथर्वेदे भगक्तिराद्देश्या’ (च. सू. अ.३०)

यद्यपि आयुर्वेद मानव सृष्टि के प्रारंभ से ही प्रादुर्भूत हुआ माना जाता है किंतु यूरोपीय इतिहासकारों ने आज से तीन चार हजार वर्ष के पूर्व में भारत के अंदर चिकित्सा शास्त्र समुन्नत था,ऐसा स्वीकृत किया है क्योंकि उनके पास यहाँ के पूर्व के ऐतिहासिक तत्व उपलब्ध नहीं है किंतु अब अनुसंधान हुए हैं उनसे भारतीय संस्कृति की प्राचीनता मानी हुई परिधि से भी अधिक पुरातन सिद्ध हो रही है। मोहनजोदारो की खुदाई ने पाश्चात्य ऐतिहासिक पंडितों का मत परिवर्तन कर दिया है अन्य भी शोध हो रहे हैं जिनसे प्राचीन भारत का गौरव विशेषतः प्रकाशित होने की संभावना है भारत से ही इस विद्या का प्रसार यूनान और यूरोप आदि पाश्चात्य देशों में हुआ यह भी ऐतिहासिक तथ्य है।

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आयुर्वेद पूर्व में एक लक्ष्य श्लोकों में था किंतु बाद में अग्निवेश आदि आचार्यों ने इसे अनेक अंग या अष्टांगो में विभक्त किया ‘श्लोक लक्षेण पूर्व ब्राह्मस्तवासीदग्निवेशादयस्तु। कृच्छाज्ज्ञेयप्राप्तपारा: सुतन्त्रास्तस्यैकैकं नैकधाअंगानि तेनु:।। और इसके अनंतर आयुर्वेद का आयुर्वेदः क्रमशः विकास हुआ और उसमें महर्षि पतंजलि ने मानस शुद्धि, शब्दशुद्धि, तथा शरीर शुद्धि के ऊपर विशेष अनुसंधान करके इस तथ्य को अंगीकृत किया कि जब तक मानसिक, सब अधिक तथा शारीरिक शुद्धि न हो तब तक मानव समाज का यथार्थ स्वास्थ्य रक्षण नहीं हो सकता। अतएव उन्होंने मान शुद्धि के लिए योग शास्त्र का प्रचार किया,  शब्द शुद्धि के लिए पतंजलि महाभाष्य बनाया तथा शरीर शुद्धि के लिए आयुर्वेद शस्त्र का विशेष प्रचार किया जैसा कि कैयट ने पातंजल महाभाष्य की टीका के मंगला चरण में लिखा है-

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य तु वैद्यकेन।

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रानजलिरान्तोऽस्मि।।

प्राचीन काल में इन अष्टांगो के पृथक – पृथक अनेक तंत्र थे किंतु दैवदुविपाक से उन तंत्रो इस समय नाम शेष रह गया है। उन तंत्रों में चरक द्वारा प्रति संस्कृत तथा कायचिकित्सा प्रधान अग्निवेश तंत्र एवं शल्यचिकित्सा प्रधान सुश्रुत तंत्र ही पूर्ण रूप से प्राप्त है। यद्यपि भेल तंत्र तथा वृद्ध जीवकीय तंत्र भी पूज्य यादव जी की कृपा से प्रकाशित हो गए हैं किंतु वे भी अनेक स्थलों में खंडित होते हुए भी प्रचार गौरव के महत्वपूर्ण प्रदर्शक है। कायचिकित्सार्थ चरक तथा शल्य शालाक्य चिकितसार्थ संयुक्त का अध्ययन प्राचीन काल से प्रचलित है जैसा कि वाग्भट्ट ने भी लिखा है।

ऋषिप्रणीते प्रीतिश्चेन्मुक्त्वा चरकसुश्रुतौ। भेडा (ला) किं न पठ्यन्ते तस्माद् ग्राह्यं सुभाषितम्।

श्रीहर्ष कवि के समय में भी चरक – सुश्रुत को पढ़े हुए वैद्य ही सुवैद्य कहलाते थे ऐसा माना गया है—

कन्यान्त: पुरबाधनाय यदधीकारान्न दोषा नृपं, द्वौ मन्त्रिपप्रवरश्च तुल्यमगदङकारश्च तावूचतु:।

देवाकर्णय सुश्रुतेन चरकस्योक्तेन जानेऽखिलं , स्यदस्या नलदं विना न दलने तापस्य कोऽपि क्षम: ।। (नैषधचरित सर्ग ४)

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  • महर्षि सुश्रुत विरचित सुश्रुत संहिता, आयुर्वेदतत्त्वसनदीपिका ( डॉ अम्बिकादत्त शास्त्री)
  • चोखाम्बा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

सुश्रुतपरिचय

  • सुश्रुत संहिता के भिन्न-भिन्न स्थानों में आए हुए प्रमाण उसे विदित होता है कि सुश्रुत संहिता का निर्माता विश्वामित्र का पुत्र सुश्रुत है –
  • विश्वामित्रसुत: श्रीमान् सुश्रुत: परिपृच्छति। ( सु• उ• तं• अ• ६६)
  • विश्वामित्रसुतं शिष्यमृषिं   सुश्रुमन्वशात्। ( सु•चि•अ• २)

  3.महाभारत के अनुशासनिक पर्व के चतुर्थं अध्याय मे विश्वामित्र के पुत्रों में सुश्रुत का नाम उल्लेखित है।

  4.भावप्रकाश में लिखा है कि विश्वामित्र प्रवृत्ति महर्षियों ने ज्ञान दृष्टि से यह जान लिया कि काशीराज के रूप में यह साक्षात् भगवान धनवंतरी है अतएव उनमें से विश्वामित्र जी ने अपने पुत्र सुश्रुत को कहा है कि हे वत्स! तुम काशी में जाकर भगवान धनवंतरी के पास आयुर्वेद विद्या का अध्ययन करो –

अथ ज्ञानदृशा विश्वामित्र प्रभृतयोऽविदन्। अयं धन्वंतरि: साक्षात्

काशिराजोऽयमुच्यते।।

विश्वामित्रों मुनिस्तेषु पुत्रं सुश्रुतमुक्तवान्। वत्स! वाराणसीं गच्छ

त्वं विश्वेश्वरवल्लभाम्।।

सुश्रुत का समय

सुश्रुत का समय निश्चित करने के लिए कोई ठीक साधन नहीं है तथापि आधुनिक पुराण शास्त्रविदों का यह मत है कि सुश्रुत का काल ईसपूर्व 1000 वर्ष से कम नहीं है इस विषय में पाश्चात्य इतिहासवेत्ता विभिन्न दृष्टिकोण रखते हैं।

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सुश्रुत जीवनवृत (600 ई. पू.)

  • विश्‍व के पहले शल्‍य चिकित्‍सक
    सुश्रुत विश्‍व के पहले चिकित्‍सक थे जिन्‍होंने शल्‍य क्रिया का प्रचार किया। आज जिसे एनस्‍थीसिया कहते हैं उसके बारे में भी उन्‍होंने जानकारी दी थी। वे सर्जरी से पहले रोगी को शराब पिलाने के साथ विशेष प्रकार की दवाइयां भी देते थे जिससे वो गहरी नींद में चला जाता था और उसे दर्द का अहसास नहीं होता था। इसे संज्ञाहरण का नाम दिया गया जो बाद में Anaesthesia कहलाया।
    सारी जानकारी है सुश्रुत संहिता में
    पलास्‍टिक सर्जरी की पहली पुस्‍तक है सुश्रुत संहिता जो पलास्‍टिक भाषा में है। सुश्रुत संहिता मुख्‍य रूप से शल्‍य-चिकित्‍सा का ही ग्रंथ है। यह पाँच विश्‍व के पहले शल्‍य चिकित्‍सक

सुश्रुत विश्‍व के पहले चिकित्‍सक थे जिन्‍होंने शल्‍य क्रिया का प्रचार किया। आज जिसे एनस्‍थीसिया कहते हैं उसके बारे में भी उन्‍होंने जानकारी दी थी। वे सर्जरी से पहले रोगी को शराब पिलाने के साथ विशेष प्रकार की दवाइयां भी देते थे जिससे वो गहरी नींद में चला जाता था और उसे दर्द का अहसास नहीं होता था। इसे संज्ञाहरण का नाम दिया गया जो बाद में Anaesthesia कहलाया।

प्‍लास्‍टिक सर्जरी की पहली पुस्‍तक है सुश्रुत संहिता जो संस्‍कृत भाषा में है। सुश्रुत संहिता मुख्‍य रूप से शल्‍य-चिकित्‍सा का ही ग्रंथ है। यह पाँच खण्‍डों में बटा हुआ है। पहले खण्‍ड में 46, दूसरे खण्‍ड में 16, तीसरे में 10, चौथे में 40 और पांचवे भाग में 8 अध्‍याय हैं। इस प्रकार सुश्रुत संहिता में कुल 120 अध्‍याय हैं। सुश्रुत संहिता में सर्जरी के लिए जरूरी औजारों यानि इंस्‍ट्रूमेंटस के बारे में भी बताया गया है। जैसे एक भालेनुमा आकृति के औजार हैं, जो टूटी हुई हड्डियों एवं अनावश्‍यक माँस को बाहर निकालने इस्‍तेमाल में लाया जाता था। ऐसे करीब 101 यंत्रों की जानकारी मिलती है, जिन्‍हें छह भागों में बांटा गया था। 1 स्‍वस्तिकयंत्र, 2 संदंशयंत्र, 3 तालयंत्र, 4 नाड़ीयंत्र, 5 शलाकायंत्र और 6 उपयंत्र। में बटा हुआ है। पहले खण्‍ड में 46, दूसरे खण्‍ड में 16, तीसरे में 10, चौथे में 40 और पांचवे भाग में 8 अध्याय हैं। इस प्रकार सुश्रुत संहिता में कुल 120 अध्‍याय हैं। सुश्रुत संहिता में सर्जरी के लिए जरूरी औजारों यानि इंस्‍ट्रूमेंटस के बारे में भी बताया गया है। जैसे एक भालेनुमा आकृति के औजार हैं, जो टूटी हुई हड्डियों एवं अनावश्‍यक माँस को बाहर निकालने इस्‍तेमाल में लाया जाता था। ऐसे करीब 101 यंत्रों की जानकारी मिलती है, जिन्‍हें छह भागों में बांटा गया था। 1 स्‍वस्तिकयंत्र, 2 संदंशयंत्र, 3 तालयंत्र, 4 नाड़ीयंत्र, 5 शलाकायंत्र और 6 उपयंत्र।

सुश्रुत संहिता

  • सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा   का प्राचीन संस्कृत(भारतीय) ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में ‘किताब-ए-सुस्रुद’ नाम से अनुवाद हुआ था।
  • सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है (वृहत्त्रयी = चरकसंहिता + सुश्रुतसंहिता +अष्टाङ्गहृदयम्) । यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट एवं उनके शिष्य सुश्रुत द्वारा प्रणीत ग्रन्थ आयुर्वेदजगत में ‘सुश्रुतसंहिता’ के नाम से विख्यात हुआ। कालक्रम में ५वीं शताब्दी में नागार्जुन द्वारा इस संहिता में उत्तरतन्त्र जोड़ने के साथ-साथ सम्पूर्ण संहिता का प्रति संस्कार भी किया गया। इसके बाद १०वीं सदी में तीसटपुत्र चन्द्रट ने जेज्जट की व्याख्या के आधार पर इसकी पाठशुद्धि की। उनका यह योगदान भी प्रतिसंस्कार जैसा ही था। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे।
  • यद्यपि वर्तमान काल में उपलब्ध सुश्रुतसंहिता में अष्टाङ्ग आयुर्वेद का पर्याप्त वर्णन मिलता है तथापि शल्यचिकित्सा को आधार मानकर निर्मित होने के कारण इसे शल्यचिकित्सा के प्राचीनतम एवं आकर ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। आधुनिक शल्य चिकित्सक भी सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का जनक मानते हैं।
  • सुश्रुतसंहिता मूलतः ५ स्थानों और १२० अध्यायों (सूत्रस्थान-४६, निदानस्थान-१६, शारीरस्थान-१०, चिकित्सास्थान-४० एवं कल्पस्थान-८ अध्यायों) में विभाजित है। नागार्जुनकृत उत्तरतन्त्र के ६६ अध्यायों को भी इसमें जोड़ देने पर वर्तमान में इस संहिता में कुल १८६ अध्याय मिलते हैं। इसमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।
  • इस संहिता के सूत्रस्थान में आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त जैसे दोष-धातु-मल, ऋतुचर्या, हिताहित, अरिष्ट, रस-गुण-वीर्य-विपाक, आहार, औषध-द्रव्य, वमन-विरेचन आदि के साथ-साथ शल्यचिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्तों यथा अष्टविध शल्यकर्म, यन्त्र, शस्त्रानुशस्त्र, क्षारकर्म, अग्निकर्म, जलौकावचारण, कर्णव्यध, कर्णबन्ध, आम और पक्व वर्ण, व्रणालेपन, व्रणबन्ध, षट् क्रियाकाल, शल्यापनयन आदि का भी अतुलनीय वर्णन मिलता है। तदुपरान्त निदानस्थान में शल्यशास्त्र के कतिपय प्रमुख रोगों का निदानपञ्चकात्मक वर्णन एवं शारीरस्थान में दार्शनिक विषयों, कौमारभृत्य के मौलिक सिद्धान्तों, मानव शरीरक्रिया और शरीररचना का वर्णन है। इसी स्थान में मर्मशारीर की अवस्थिति सुश्रुत के शारीर विषयक ज्ञान का उत्कृष्टतम स्वरूप है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी यह कुतुहल का विषय है। अधुना इस विषय पर पुनः अनुसन्धान अपेक्षित है। आयुर्वेदीय साहित्य में शरीररचना (एनाटॉमी) का जितना विशद विवेचन सुश्रुतसंहिता में मिलता है, उतना किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं है। इसी कारण आयुर्वेदवाङ्मय में ‘शारीरे सुश्रुतः श्रेष्ठः’ (शरीररचना की व्याख्या में सुश्रुत श्रेष्ठ हैं) उक्ति प्रसिद्ध है।
  • चिकित्सास्थान में शल्यतन्त्रोक्त रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ, वाजीकरण, रसायन एवं पञ्चकर्म आदि चिकित्सा विधाओं का वर्णन तथा कल्पस्थान में अगदतन्त्र का विस्तृत वर्णन है। उत्तरतन्त्र में शालाक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, स्वस्थवृत्त, तन्त्रयुक्ति, रस और दोष विषयक मौलिक सिद्धान्तों का वर्णन है। संक्षेप में सुश्रुतसंहिता में न केवल शल्यतन्त्र अपितु आयुर्वेद के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विशद विश्लेषण किया गया है जिसके परिणामस्वरूप सुश्रुतसंहिता को बृहत्त्रयी में समादृत स्थान दिया गया।

शल्य चिकित्सा

चित्र में- आचार्य सुश्रुत शल्य चिकित्सा करते हुए

सुश्रुत संहिता का अपर नाम शल्य चिकित्सा है इसमें प्रमुख रूप से अनेक उपचारों तथा औषधियों का वर्णन मिलता है।भारतवर्ष में  चिकित्सा की परंपरा प्राचीन काल से प्रचलित है। इसलिए पुराने जमाने की विद्वानों ने कहा है कि ब्रह्मा ने इस ज्ञान को जन्म दिया इस संबंध में यह धारणा है कि ब्रह्मा ने ज्ञान प्रजापति को दिया था प्रजापति ने यह ज्ञान अश्विनी कुमार के पास पहुंचाया वैदिक साहित्य में अश्विनी कुमारों के चमत्कारिक उपचार की अनेक कथाएं पढ़ने को मिलती हैं। अश्विनी कुमारों की विद्या से अभिभूत होकर देवराज इंद्र ने आयुर्वेद का ज्ञान ग्रहण किया था कहा जाता है कि इंद्र को चिकित्सालय का ज्ञान था उसमें विभेद नहीं था किंतु इंद्र के बाद इस ज्ञान की दो प्रमुख शाखाएं हो गई है।कायचिकित्सा शल्य चिकित्सा कायचिकित्सा के आदि ग्रंथ चरक संहिता के अनुसार भारद्वाज आत्रेय पुनर्वसु अग्निवेश आदि का चिकित्सा के वैद्य हैं। जबकि शल्य चिकित्सा के आदि ग्रंथ सुश्रुत संहिता में इंद्र के बाद धनवतन का जिक्र मिलता है एक बार का समय था एक वृद्ध अपने कक्ष में सो रहा था किसी ने बाहर से जोर से दरवाजा खटखटाया वृद्ध की आंख खुल गई उसने उठकर दरवाजा खोला तो सामने खून से लथपथ एक व्यक्ति खड़ा था वृद्ध ने ध्यान से देखा उस व्यक्ति की नाक कटी हुई थी और उसमें रक्त स्राव हो रहा था वृद्ध व्यक्ति ने 1 पत्ते से आगंतुक व्यक्ति के गांव की नाप ली फिर उसने दीवार पर टंगे भांति भांति के उपकरणों में से कुछ उपकरण उतारे और उन्हें आग पर गर्म करने लगा और वृद्ध ने किसी अजनबी के गाल से मांस के टुकड़ा काट लिया उसे दवाओं पर उपस्थित किया उसने कटे हुए स्थान पर उंगली लाल चंदन का बुरादा छिड़ककर दार हल्दी का रस लगाया वृद्ध ने नाक को तिल के तेल से भीगी रूई से ढककर पट्टी बांधने के बाद घायल को नियमित रूप से खाई जाने वाली दवाइयों की सूची दे दी और घर जाने को कहा उस घायल की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने वाला वह वृद्ध और कोई नहीं आयुर्वेद के विश्वविख्यात आचार्य सुश्रुत थे जिन्हें सर्जरी के पिता प्लास्टिक सर्जरी का पिता भी कहा जाता है।

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सुश्रुतसंहिता की टीका ग्रन्थ

सुश्रुतसंहिता शल्य परंपरा का आधारभूत ग्रंथ है। जिसमें शल्यचिकित्सक की विद्याओं के निदेश के साथ साथ प्रत्यक्ष कर्मा अभ्यास को भी पर्याप्त महत्त्व दिया गया है ।किंतु प्रत्यक्ष कर्माभ्यास शास्त्र के सम्यक् अध्ययन उपरान्त की संभव है संहिता के गूढ़ार्थ को समझें बिना प्रत्यक्ष कर्मा अभ्यास में संयुक्त गति होना संभव नहीं है तथा बिना कर्मा अभ्यास के शल्य चिकित्सा में सिद्धि की कल्पना व्यर्थ है वस्तु संहिता के गुढ एवं अस्फुटित विषयों के प्रकाशनार्थ परिवर्तित आचार्यों द्वारा इस संहिता पर अनेक व्याख्यानों का प्रणयन किया गया अधुना उनमें से कतिपय व्याख्या ही उपलब्ध हो पाती है वर्तमान में सुश्रुतसंहिता पर डल्हण विरचित निबन्धसंग्रह, गयदास विरचित न्याय चंद्रिका, चक्रपाणिदत्त, विरचित भानुमती एवं हाराणचन्द्र विरचित सुश्रुतार्थ संदीपन व्याख्याएं ही उपलब्ध है इनमें से न्यायचंद्रिका केवल निदान स्थान पर और भानुमति केवल चंद्र के  स्थान पर उपलब्ध है जबकि निबन्धसंग्रह और सुश्रुतार्थ संदीपन व्याख्याऐ पूर्णतः प्रकाशित है निबंध संग्रह सुश्रुत संहिता की उपलब्ध व्याख्या में से पठन पाठन में सर्वाधिक प्रचलित एवं परमोपयोगी व्याख्या है  इस व्याख्या की महत्ता न केवल संपूर्ण उपलब्ध होने के कारण है अपितु विषयों का सरल एवं सुबोध भाषा में स्पष्टीकरण भी इसके महत्त्व ज्ञापन का ही हेतु है इस व्याख्या के बारे में विद्वज्जनों की मान्यता यह है कि संस्कृत का समान्य ज्ञान रखने वाला सनातन भी इसके सहित सुश्रुत संहिता का अध्ययन करने आयुर्वेद को गूढ़ रहस्यों को आसानी से समझ लेता है इस व्याख्या में द्रव्यों के अप्रचलित नामों पर टीका करते हुए प्रचलित पर्यायों का उल्लेख करके संदिग्ध द्रव्यों की समस्या का कुछ हद तक समाधान किया गया है।      

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कपिल मुनि (सांख्य शास्त्र प्रणेता) | Kapil Muni (Sanakhya shastr)        

पुनर्वसु आत्रेय (आयुर्वेद चिकित्सक) | Punarvasu Atreya (Ayurveda doctor)

तुलसी एक फायदे अनेक

संस्कृत का महत्त्व

– संस्कृतभाषायाः वैज्ञानिकता  | संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता | Scientism of Sanskrit language

भारत में संस्कृत विश्वविद्यालय | Sanskrit Universities in India

सौजन्य-  दीप्ति कपूर, तन्नु शर्मा, सुनीता भंवरा, (के.सं.विश्वविद्यालय वेदव्यास परिसर बलाहर कांगड़ा, शिक्षा शास्त्री सत्र- 2022-23 )                             

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