विद्या पर आधारित संस्कृत श्लोकविद्या पर आधारित संस्कृत श्लोक

विद्या पर आधारित संस्कृत श्लोक | संस्कृताक्षरि | संस्कृत सुभाषित -02, संस्कृत भाषा विश्व में जितनी प्राचीन है उतनी ही अमूल्य ज्ञान निधी संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है। व्यक्ति के जीवन को बदल देने वाले संस्कृत श्लोक सुभाषित इसमें पढ़ने को मिल जाते हैं । इन श्लोकों में निहीत ज्ञान आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना प्राचीन काल में रहा होगा। आइए आज की शृखंला में विद्या पर आधारित श्लोकों को जानने समझने का प्रयास करते है…

विद्या पर आधारित संस्कृत श्लोक सुभाषित

सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।

अर्थात् — सुख चाहने वालों को विद्या कहाँ से मिलेगी, और विद्यार्थी को सुख कहाँ से प्राप्त होगा, सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख का त्याग कर देना चाहिए।

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पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम्।

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।

अर्थ — किसी पुस्तक में रखी विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन। ये दोनों जब जरूरत होती है तब हमारे किसी भी काम में नहीं आती।

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते।।

अर्थ — जो दोनों को जानता है, भौतिक विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी, पूर्व से मृत्यु का भय अर्थात् उचित शारीरिक और मानसिक प्रयासों से और उतरार्द्ध अर्थात् मन और आत्मा की पवित्रता से मुक्ति प्राप्त करता है।

न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।

अर्थ — न चोर के द्वारा चुराया जा सकता है, न राजा द्वारा छीना जा सकता है। न इसका भाइयों के बीच बंट वारा होता है और न ही संभलना कोई भर है। इसलिए खर्च करने से बढ़ने वाला विद्या रुपी धन, सभी धनों से श्रेष्ठ है।

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।

अर्थ — विद्या हमें विनम्रता प्रदान करने वाली होती है। विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है। तथा योग्यता से हमें धन की प्राप्त होती है । और इस धन से हमें धर्म के कार्य करने की प्रेरणा मिलती है जिससे हम सुखी रहते हैं।

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नास्ति विद्यासमो वन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत्।

नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम्।।

अर्थात्- विद्या जैसा कोई बन्धु नहीं होता है। और न ही विद्या जैसा कोई मित्र होता है। न ही विद्या जैसा कोई धन होता है। और न ही विद्या जैसा कोई सुख होता है।

गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।

अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो नोपलभ्यते ॥”

अर्थात्- गुरु की सेवा करके, अधिक धन देकर, या विद्या के बदले में विद्या, इन तीन माध्यमों से ही विद्या प्राप्त की जा सकती है। विद्या प्राप्त करने का कोई चौथा उपाय नहीं होता है।

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