पंचांग का प्रयोजन क्या है:- “अहं पंचाग बलवान आकाशम् वशमानये” ज्योतिर्विद ज्योतिषविद्या के आधार पर खगोलीय पिंडो का अध्ययन कर आकाश को अपने वश में मानता है क्योंकि वैदिक पौराणिक और लौकिक यज्ञ को करने के लिए हमें शुद्धमुहूर्त की या शुभकाल की आवश्यकता होती है। यह शुभ काल ज्योतिष शास्त्र के द्वारा ज्ञात किया जाता है।
पंचाग का महत्त्व-
ज्योतिष शास्त्र द्वारा किसी भी कार्य के सम्पादन के लिए पंचांग शुद्धि सर्वप्रथम आवश्यक होती है। पंचांग शुद्धि में तिथि वार नक्षत्र योग करण के शुद्ध कालमान स्पष्ट कर शुभ कार्यों का संपादन किया जाता है।
” तिथिर्वासर नक्षत्र योगकरणमेव च।
इति पंचागमाख्यातं व्रत पर्व निर्दशकम् ।। “
तिथि
चंद्रस्पष्ट और सूर्यस्पष्ट का (१२°)द्वादश अंशात्मक अंतर ही तिथि कहलाता है इसे चांद्र दिन के रूप में भी स्वीकार किया जाता है तिथियां १५ होती है जिनकी क्रमशः नंदा भद्रा जया रिक्ता और पूर्णा संज्ञा तिथियों की कही गई हैं।
वार
सूर्योदय कालिक होरापति वारेश होता है, अर्थात् सूर्य उदय समय में जिस ग्रह की होरा होती है उसीग्रह का वह वार होता है। रवि सोम मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि ये सात वार कहे गए हैं।
नक्षत्र
चंद्र स्पष्ट से सूर्य स्पष्ट में १३°२०’ का अंतर एक नक्षत्र का कालमान होता है। इसे नाक्षत्रदिन भी कहा जाता है। नक्षत्र २७ होते हैं अभिजित को जोड़कर इनकी संख्या २८ हो जाती है
योग
तिथि का अर्धभाग करण होता है । करण ११ होते हैं। सात चर और चार स्थिर संज्ञक हैं। स्थिर करण कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से शुरु होकर शुक्ल प्रतिपदा तक ही रहते हैं। शेष दिनों में सात करण क्रमशः परिवर्तित होते रहते हैं
करण
योग २७ संख्यक हैं सूर्य स्पष्ट और चन्द्रमा स्पष्ट में ८०० कला का अंतर होता है तो एक योग प्राप्त होता है। इस प्रकार इनका साधन भी नक्षत्र की तरह ही हैं और एक योग का संपूर्ण कालमान ८०० कला है।
साभार-
डॉ. महेन्द्र कुमार
प्राध्यापक, श्री सनातन धर्म संस्कृत कालेज चण्डीगढ़, 23B