संस्कृत सूक्तियाँ, | Sanskrit Suktiyan (Proverb) :- संस्कृत भाषा हमारे देश का गौरव ही नहीं अपितु ज्ञान-विज्ञान की जननी भी है। यह भाषा विश्व की सबसे प्राचीनतम भाषा है। इस भाषा को पढ़ने, समझने और जानने की रुचि भारत में ही नहीं विदेशों में भी बढ़ रही है।
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संस्कृत सूक्तियाँ
संस्कृत का प्रचार-प्रसार अब वर्तमान तकनीकी युग में बहुत तेजी से बढ़ रहा। प्रचार का माध्यम चाहे संस्कृत शिविरों के माध्यम से हो रहा हो अथवा संस्कृत में हिन्दी गानों का अनुवाद कर उनका गायन कर हो रहा हो। सबका एक ही ध्येय है कि यह भाषा पुनः बोल चाल की भाषा बने। आज हम संस्कृत सूक्तियाँ | Sanskrit Suktiyan (Proverb) पढ़ेगें। इनका प्रयोग नित्य वाक् व्यवहार में करने से संस्कृत पढ़ने में सरलता आयेगी।
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1. अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ: (वाल्मीकि रामायण 6.16.21)
अर्थ– अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं।
2. ‘अतिथि देवो भव’ (तैत्तिरीयोपनिषद् 1/11/12)
अर्थ– अतिथि देव स्वरूप होता है।
3. ‘अर्थो हि कन्या परकीय एव।’ (अभि.शाकुन्तलम्)
अर्थ– कन्या वस्तुत: पराई वस्तु है।
4. ‘अहिंसा परमो धर्म:।’ (महाभारत-अनुशासनपर्व)
अर्थ– अहिंसा परम धर्म है।
5. ‘अहो दुरंता बलवद्विरोधिता।’ (किरातार्जुनीयम् 1/23)
अर्थ– बलवान् के साथ किया गया वैर-विरोध होना अनिष्ट अंत है।
6. ‘आचार परमो धर्मः।’ (मनुस्मृति 01/108)
अर्थ– आचार ही परम धर्म है।
7. असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। (बृहदारण्यक-1.3.28)
अर्थ– मुझे असत् से सत् की ओर ले जायें, अंधकार से प्रकार की ओर ले जायें।
8. ”ईशावास्यमिदं सर्वं” (ईशावास्योपनिषद्-मंत्र 1)
अर्थ– संपूर्ण जगत् के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है।
9. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत (कठोपनिषद्)
अर्थ– हे मनुष्य! उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके द्वारा परब्रह्म परमेश्वर को जान लो।
10. किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 1/20)
अर्थ– सुन्दर आकृतियों के लिए क्या वस्तु अलंकार नहीं होती है।
11. क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। (शिशुपालवधम् 4/17)
अर्थ– जो प्रत्येक क्षण नवीनता को धारण करता है वही रमणीयता का स्वरूप है।
12. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
अर्थ– माता-जन्मभूमि और स्वर्ग से भी बड़ी होती है।
13. जीवेम शरद: शतम्। (यजुर्वेद 36/24)
अर्थ– हम सौ वर्ष तक देखने वाले और जीवित रहने वाले हों।
14. तमसो मा ज्योतिर्गमय। (बृहदारण्यक 1.3.28)
अर्थ– अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जायें।
15. तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते। (रघुवंशम् 11/1)
अर्थ– तेजस्वी पुरुषों की आयु नहीं देखी जाती है।
16. दीर्घसूत्री विनश्यति। (महाभारत शान्तिपर्व 137/1)
अर्थ– प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलंब करने वाला नष्ट होता है।
17. न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। (कुमारसम्भवम्– 5/16)
अर्थ– कम उम्र वाले व्यक्ति भी तप के कारण आदरणीय होते हैं।
18. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य। (कठोपनिषद् 1/1/27)
अर्थ– मनुष्य कभी धन से तृत्प नहीं हो सकता।
19. नास्तिको वेदनिन्दकः। (मनुस्मृति 2/11)
अर्थ– वेदों की निन्दा करने वाला नास्तिक है।
20. नास्ति मातृसमो गुरु। (महाभारत अनुशासनपर्व)
अर्थ– भीष्म कहते हैं– माता के समान कोई गुरु नहीं।
21. नास्ति विद्या समं चक्षु। (महाभारत शान्तिपर्व)
अर्थ्– संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
22. परोपकाराय सतां विभूतय:। (नीतिशतक)
अर्थ– सज्जनों की विभूति (ऐश्वर्य) परोपकार के लिए है।
23. पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। (रघुवंशम्– 3/62)
अर्थ– गुण ही सर्वत्र शत्रु-मित्रादिकों में पैर को स्थापित करते हैं।
24. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः। (मुद्राराक्षस/नीतिशतक 2/7)
अर्थ– नीचे लोग विघ्नों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते।
25. मा गृधः कस्यस्विद्धनम् (ईशावास्योपनिषद्)
अर्थ– ‘किसी के भी धन का लोभ मत करो।’