गुरु स्तुतिगुरु स्तुति

गुरु स्तुति | गुरू से सम्बन्धि संस्कृत श्लोक:- इस संसार में वह गुरू ही होता है जो हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला होता है। अज्ञान से ज्ञान की ओर उन्मुख करने वाला होता है। अतः इस कालजयि गुरू शब्द की जितनी भी महिमा का गान करें वह उतना ही कम है। आज के आलेख में हम गुरू स्तुति में संस्कृत श्लोकों का वर्णन यहां करेंगे। यह भी पढ़े- नवम्बर मास के प्रमुख व्रत एवं त्यौहार

गुरु स्तुति

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

अर्थात् गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है। उन सद्गुरु को प्रणाम है।

अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

जो अखण्ड है, सकल ब्रह्माण्ड में समाया है, चर-अचर में तरंगित है। उस (प्रभु) के तत्व रूप को जो मेरे भीतर प्रकट कर मुझे साक्षात दर्शन करा दे, उन गुरु को मेरा शत् शत् नमन है। अर्थात् वही पूर्ण गुरु है ।

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अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हुए जीव की आँखें जिसने ज्ञानरूपी काजल की श्लाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरू को नमन है, प्रणाम है।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥

 अर्थात् धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

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नमोस्तु गुरुवे तस्मै, इष्टदेव स्वरूपिणे।

यस्य वाग्मृतम् हन्ति,विषं संसार संज्ञकम्।।

अर्थात् उन गुरूदेव रूपी इष्टदेव को वन्दन है, जिसकी अमृत वाणी अज्ञानता रूपी विष को नष्ट कर देती है।

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।

गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते॥

 अर्थात् जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप मार्ग पर चलते हैं।  हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध कराते हैं,  उन्हें गुरु कहते हैं।

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।

गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥

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अर्थात् गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए ।

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।

दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्॥

  अर्थात् बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।

प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।

शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः॥

  अर्थात् प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।

गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।

अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥

   अर्थात् ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज। जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है।

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च।

नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥

  अर्थात् शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।

देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।

अर्थात् – भाग्य रूठ जाने पर गुरू रक्षा करता है। गुरू रूठ जाये तो कोई रक्षक नहीं होता। गुरू ही रक्षक है, गुरू ही शिक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।

।। ऊं श्री गुरवे नमः ।।

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