ज्योतिषशास्त्र का सामान्य परिचय :- इस ब्रह्मांड के प्रत्येक प्राणी का भौतिक पदार्थों के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सबंध रहते हैं इसके अंतर्गत पिंड और ब्रह्मांड व्यष्टिगत और समष्टिगत संबंध निहित किया गया है ब्रह्मांड के ग्रह नक्षत्र तारा समूह विद्यमान रहते हैं इनकी गति-स्थिति, राशि -प्रवेश और नक्षत्र- प्रवेश का प्रत्येक प्राणी पर प्रभाव रहता है जैसे कि कहा भी गया है “यत् पिंडे तथा ब्रह्मांडे”। भूमिस्थानीय पुरुष स्त्री पशु पक्षी आदि प्राणियों के ऊपर ग्रह नक्षत्र तारा समूह इत्यादि ब्रह्मांडीय पिंडो का शुभ और अशुभ फल प्राप्त होता है। यह प्रभाव समस्त प्राणियों पर एक समान ना होकर पृथक पृथक रूप से प्रभावित करता है।प्रत्येक प्राणी पूर्व जन्म के संचित एवं प्रारब्ध कर्मों को वर्तमान जीवन में प्रतिफल के रुप में प्राप्त करता है ।जैसा कि शास्त्रों में कहा भी गया है-
“अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।”
ज्योतिषशास्त्र का परिचय-
प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने जीवन की वर्तमान भूतकाल अथवा भविष्य काल की विगत या संभावित घटनाओं की समस्या का समाधान अर्थात जीवन में घटित होने वाली समस्त शुभाशुभ परिस्थितियों लाभ एवं हानियां उन्नति और अवंती सफलता और विफलता सुख-दुख जन्म और मृत्यु मानव जीवन में गर्भकॉल से ही प्रस्फूटीत होने लगती है। किन्तु मनुष्य अपने अनिष्ट के निवारण और अभीष्ट की प्राप्ति हेतु प्रचलित शास्त्रोक्त उपाय विधि के अनुसार ही संपादित प्रयत्न करता रहता है।
प्राचीन काल में सर्वप्रथम मनुष्यों के अशुभत्व की शांति हेतु तथा शुभत्व की प्राप्ति हेतु वेदों में अनेक उपाय वर्णित है जो यज्ञ यागादि विधि से संपन्न किए जाते हैं अतः हम यह कह सकते हैं कि इन वैदिक यज्ञ यागादि उपाय का संपादन ज्योतिषीय मुहूर्तों के आधार पर किया जाता है इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ज्योतिषविद्या का प्रादुर्भाव वेदों के साथ ही इस सृष्टि क्रम में हुआ है।

वेद वेदांग में ज्योतिष का नेत्र स्थान माना जाता है जिस प्रकार नेत्र के द्वारा प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थ के स्वरुप का ग्रहण होता है उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों का ज्ञान ज्योतिर्विद किया करते हैं।
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ज्योतिषशास्त्र को कईं भागों में विभाजन प्राप्त होता है परन्तु वर्तमान में मुख्य रूप से ज्योतिशास्त्र को मुख्यतय तीन रूपों में विभक्त किया है सिद्धांत, संहिता, होरा।
सिद्धांत ज्योतिष-
सिद्धांत भाग में आकाश स्थित ग्रह नक्षत्र इत्यादि की गति स्थिति दूरी परिमाप आदि का वृतांत मिलता है अर्थात् ग्रहों की स्थिति, ग्रहों की युति, सूर्योदय व सूर्यास्त ज्ञान, चंद्रोदय अस्त ज्ञान एवं अन्य ग्रहों का उदयास्त ज्ञान, ग्रहों की स्थिति, युती, ग्रह युद्ध, चंद्र-सिंह उन्नति इत्यादि आकाशीय चमत्कारों का ज्ञान सिद्धांत भाग के अनुसार हम लोगों को ज्ञात होता है
सिद्धांत ज्योतिष में ग्रहगणित द्वारा युग वर्ष, अयन, ऋतू, मास, पक्ष, अहोरात्र, प्रहर, मुहूर्त, घटी, पल, प्राण, त्रुटि, आदि कालों का तथा भगण, राशि और कला, विकला आदि का ज्ञान होता है। सौर, सावन, चांद्र, नक्षत्र चारों मान का तथा अधिकमास क्षयमास इनकी उत्पत्ति के कारण सूर्योदय नक्षत्रगणना सूर्यचंद्र, ग्रहण, स्पर्श, मध्यम और मोक्ष एवं ग्रहयुद्ध समागम रेखांश, पृथ्वी, अक्षांश, देशान्तर, चरखंड, राश्युदय, नाड़ी करण आदि सब सिद्धांत ज्योतिष के ग्रह गणित द्वारा ही साध्य है।
संहिता ज्योतिष-
संहिता भाग में ग्रहसंचार, अगस्त्यसंचार, सप्तऋषि संचार, नक्षत्रव्यूह, ग्रहयुद्ध, समागम, श्रृंगाटक, गर्भलक्षण, सद्योवर्षण, कुसुमलक्षण, उल्कापात, दिगदाहलक्षण, भूकम्प, धूलि-निर्घात लक्षण, अर्घकांड, अन्नोत्पति, वास्तुविद्या, अंगविद्या, काकचेष्टित वायसविद्या, अंतरचक्र, मृगचक्र, अश्वचक्र, वातचक्र, प्रसादलक्षण प्रतिमालक्षण, प्रतिमा प्रतिष्ठा, वृक्षायुर्वेद, उद्गागर्ल, विविधवृक्ष, जलज्ञान, उत्पातों की शांति, मयूरचित्रक, घृत, कम्बल, खड़ग, कूर्म, अज, अश्व, पुरुष, स्त्री मोती, वस्त्रछेद, चामर, दंड, शय्या, आसन लक्षण, रत्नपरीक्षा, दंत काष्टादि का शुभाशुभ फललक्षण, संहिता के विषय हैं।
होरा ज्योतिष-
होरा शास्त्र को फलित ज्योतिष कहा जाता है फलित ज्योतिष के मुख्यत: पांच भेद कहे गए हैं। जातक ताजिक मुहूर्त प्रश्न और शकुन।
जातक
प्राचीन भारतीय ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार12 राशि के स्वरुप, ग्रह नक्षत्र स्वरुप, लग्न, होरा, द्रेश्काण नवांश द्वादशांश त्रिशांश कुंडली निर्माण, राशियों के बलावल, सूर्यादि ग्रहों के दिग्बल, स्थानबल, कालबल, चेष्टावल का विचार, गर्भाधान काल, जन्मकाल नालवेष्टित, कोशवेष्टित, यमलसंतान विचार, आयुज्ञान अल्पायु मध्यमायू दीर्घायुयोग, दशाफल, अंतर्दशाफल, अष्टकवर्ग, राजयोग, चन्द्र योग, द्विग्रह, त्रिग्रह, चतुरग्रह पंचग्रह योग, नाभसयोग इनका फल ग्रहयुति, दृष्टिनिर्णय विचार, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ कारण एवं फल कथन यह जातक विषय के अंतर्गत निहित हैं।
ताजिक
ताजिक भाग के अंतर्गत वर्षफल, मासफल, दिनफल, घटीफल इत्यादि का ज्ञान होता है। यवनों ने ताजिक शास्त्र में विशेष उन्नति की है अतः इसे यवन ज्योतिष के नाम से भी जाना जाता है। इसमें फारसी शब्दों के रूप में इकबाल इंदुवार इसराफ योग का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम नीलकंठ आचार्य ताजिकनीलकंठी नामक ग्रंथ प्राप्त होता है।
मुहूर्त
मुहूर्त विभाग में गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोनयन, जातकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, कर्णवेध, चौलकर्म, वेदारंभ, केशांत गोदान, विवाह, गृहस्थ्य, अग्नि आदि संस्कारों के मुहूर्त, ग्रहगोचर का शुभाशुभ विचार, यात्रामुहूर्त, द्विरागमन, वास्तुविद्या, मूर्तिप्रतिष्ठा, मुहूर्त, गृहनिर्माण वर्णन प्राप्त होता हैं।
शकुन शास्त्र
शकुन शास्त्र में काकचेष्टित वायस विरूत, शिवारुत, मृगचेष्टित श्वचेष्टित गवेंगित, अश्वेंगित हस्तिचेष्टित पशुपक्षी इंगित विषयों का वर्णन शाकुन शास्त्र में प्राप्त होता है।इनमें इन कोआ गीदड़ श्रृगा ल, कुत्ता घोड़ा हाथी हिरन बिल्ली छिपकली पशुपक्षियों के द्वारा किए जानेवाले ध्वनि, चेष्टा, पलायन और अन्य प्राणी के साथ व्यवहार आदि के द्वारा शकुन के आधार पर निर्णय किया जाता है
इस प्रकार से ज्योतिष के तीनों विभागों के द्वारा मानवजीवन उपयोगी वैज्ञानिक तथ्यात्मक पक्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। इसी के आधार पर वैदिकयज्ञ, पौराणिकयज्ञ, लौकिकयज्ञ एवं मानव व्यवहार उपयोगी कर्म संपादन किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं। कि ज्योतिष मानवजीवन में अपनी सार्थकता को सिद्ध करता है।
आभार-
डॉ.महेन्द्र कुमार
प्राध्यापक, श्री सनातन धर्म संस्कृत कालेज चण्डीगढ़ 23B