वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणीविनायकौ।।
भास्कराचार्य | Bhaskaracharya-भास्कराचार्य भारत के महान विद्वान ज्योतिषी और गणितज्ञ थे। इनको भास्कर द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है। खगोल, ज्योतिष और गणित में इनका महान योगदान है।
भास्कराचार्य
भास्कराचार्य या भास्करद्वितीय (1114– 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं। आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है जबकि गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की चर्चा भास्कराचार्य द्वारा बहुत पहले ही अपने ग्रन्थ सिद्धान्तसिरोमणि में कर दी गई थी। उन्होने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। कथित रूप से यह उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है। भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। कुछ–कुछ जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं। निम्नलिखित श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य का जन्म सन 1036 में कर्णाटक देशस्थ बीजापुर नामक गाँव में हुआ था जो सहयाद्रि पहाड़ियों में स्थित है।
आसीत सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने।
नाना जज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रोद्विजः॥
श्रौतस्मार्तविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधि।
साधुर्नामवधिर्महेश्वरकृती दैवज्ञचूडामणि॥ (गोलाध्याये प्रश्नाध्यायः, श्लोक ६१)
इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के भट्ट ब्राह्मण थे और सह्याद्रि क्षेत्र के बीजापुर नामक स्थान के निवासी थे। लेकिन विद्वान इस विज्जलविड ग्राम की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाए हैं। डॉ. भाऊ दाजी (१८२२-१८७४ ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से लगभग १६ किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी। इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर भट्ट था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी
गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक ५८ में भास्कराचार्य लिखते हैं :
रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः।
रसगुणवर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणि रचितः॥
(अर्थ : शक संवत १०३६ में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस वर्ष की आयु में मैंने सिद्धान्तशिरोमणि की रचना की।)
अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत १०३६, अर्थात ईस्वी संख्या १११४ में हुआ था और उन्होंने ३६ वर्ष की आयु में शक संवत १०७२, अर्थात ईस्वी संख्या ११५० में लीलावती की रचना की थी।
भास्कराचार्य के देहान्त के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना ६९ वर्ष की आयु में ११८३ ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्कराचार्य के नाम से भारत ने 7 जून 1979 को छोड़े उपग्रह का नाम भास्कर-1 तथा 20 नवम्बर 1981 को छोड़े प्रथम और द्वितीय उपग्रह का नाम भास्कर-2
भास्कराचार्य की वंशावली
त्रिविक्रम :
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भास्करभट्ट :
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गोविन्द:
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प्रभाकर:
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मनोरथ:
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महेशव्र:
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लक्ष्मीधर:
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चंगदेव:
गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के प्रणेता
भास्कर ने अपने “भुवन कोश” नामक ग्रंथ में लिखा है, पृथ्वी क्रमानुसार चंद्र, बुध, शुक्र, रवि, मंगल, बृहस्पति और अन्य ग्रहों की कक्षा से घिरी है। यह आधारहीन है और केवल अपनी शक्ति से स्थिर है। पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, जिसकी वजह से वह सब चीजों को अपनी ओर खींचती है और वह वस्तु भूमि पर गिरती हुई सी प्रतीत होती है। इससे यह पता चलता है की भास्कर ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत, न्यूटन (१६४२-१७२७) से लगभग ५०० वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था |
भास्कराचार्य की कृतियां
- भास्कराचार्य ने कई ग्रंथों की रचना की। जिनमें भुवन कोश, करण कुतूहल , सिद्धांत शिरोमणि और बीजगणित प्रमुख है। बीजगणित नामक पुस्तक में करणी (अंडर रूड)
तथा संख्याओ का योग, वर्ग प्रकृति, एक वर्ण और अनेक वर्ण समीकरण वर्णित हैं। शाहजहां के समय में अताउल्लाह रशीदी ने “बीजगणित” पुस्तक का फारसी में अनुवाद (१६३४) किया। इसका अग्रेजी अनुवाद कोलबुक (१८१७) तथा स्ट्रेची (१८१३) ने किया। जबकि “करण कोतूहल” में ग्रहो की गणना करने की सरल विधि बताई गई है, जिससे पंचांग बनाने में सहायता मिलती है।
सन् 1150 ई० में इन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि नामक पुस्तक, संस्कृत श्लोकों में, चार भागों में लिखी है, जो क्रम से इस प्रकार है:
- पाटीगणिताध्याय या लीलावती,
- बीजगणिताध्याय,
- ग्रहगणिताध्याय, तथा
- गोलाध्याय
इनमें से प्रथम दो स्वतंत्र ग्रंथ हैं और अंतिम दो “सिद्धांत शिरोमणि” के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा करणकुतूहल और वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो छोटे ज्योतिष ग्रंथ इन्हीं के लिखे हुए हैं। इनके सिद्धान्तशिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।
६९ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी द्वितीय पुस्तक करणकुतूहल लिखी। इस पुस्तक में खगोल विज्ञान की गणना है। यद्यपि यह कृति प्रथम पुस्तक की तरह प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी पंचांग आदि बनाने के समय अवश्य देखा जाता है.
भास्काराचार्य रचित ज्योतिष ग्रन्थ
भास्काराचार्य जी ने ब्रह्मास्फूट सिद्धान्त को आधार मानते हुए, एक शास्त्र की रचना की, जो सिद्धान्तशिरोमणि के नाम से जाना जाता है. इनके द्वारा लिखे गए अन्य शास्त्र, लीलावती (Lilavati), बीजगणित, करणकुतूहल (Karana-kutuhala) और सर्वोतोभद्र ग्रन्थ (Sarvatobhadra Granth) है.
इनके द्वारा लिखे गए शस्त्रों से उ़स समय के सभी शास्त्री सहमति रखते थें. प्राचीन शास्त्रियों के साथ गणित के नियमों का संशोधन और बीजसंस्कार नाम की पुस्तक की रचना की.
ज्योतिष् गणित में इन्होनें जिन मुख्य विषयों का विश्लेषण किया, उसमें सूर्यग्रहण का गणित स्पष्ट, क्रान्ति, चन्द्रकला साधन, मुहूर्तचिन्तामणि (Muhurtha Chintamani) और पीयूषधारा (Piyushdhara) नाम के टीका शास्त्रों में भी इनके द्वारा लिखे गये शास्त्रों का वर्णन मिलता है. यह माना जाता है, कि इन्होनें फलित पर एक पुस्तक की रचना की थी. परन्तु आज वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है.
सिद्धांतशिरोमणि
भास्कराचार्य ने सिद्धांतशिरोमणि ग्रंथ की रचना अपने सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के ग्रंथो से नई नई तथा प्रमाणिक बातों का संकलन करके की है
सिद्धान्त शिरोमणि, संस्कृत में रचित गणित और खगोल शास्त्र का एक प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी रचना भास्कर द्वितीय (या भास्कराचार्य) ने सन ११५० के आसपास की थी।
इसके चार भाग हैं-
1.लीलावती – इसमें अंकगणित (मैथेमेटिक्स) का विवेचन किया गया है।
2.बीजगणित – इसमें बीजगणित (अल्जेब्रा) का विवेचन है।
3.ग्रहगणिताध्याय
4.गोलाध्याय
ग्रहगणिताध्याय और गोलाध्याय में खगोलशास्त्र का विवेचन है।
1. सिद्धान्त शिरोमणि-
गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त-
मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो।
यतो विचित्राः खलु वस्तुशक्तयः ॥ — (सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोष-5)
वे पुनः कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च महि तय यत्।
खष्ठं गुरु स्वभिमुखं स्वशक्त्या ॥
आकृष्यते तत्पततीव भाति।
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे ॥ — (सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोष-६)
धरती के सम्बन्ध में वर्णन-
समो यत: स्यात्परिधेह शतान्श:।
पृथी च पृथ्वी नितरां तनीयान् ॥
नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना।
समेव तस्य प्रतिभात्यत: सा ॥ — (सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोष- १३)
यंत्र—
सिद्धान्त शिरोमणि के यन्त्राध्याय में आकाश से निरीक्षण करने हेतु 9 यन्त्रों का वर्णन हैः–
गोल यन्त्र (2) नाडी वलय (सूर्य घडी) (4) शंकु (5) घटिका यन्त्र (6) चक्र (7) चाप (8) तूर्य (9) फलक यंत्र इत्यादी
2. लीलावती ग्रन्थ-
लीलावती, भारतीय गणितज्ञ भास्कर द्वितीय द्वारा सन ११५० ईस्वी में संस्कृत में रचित, गणित और खगोल शास्त्र का एक प्राचीन ग्रन्थ है, इसमें 625 श्लोक हैं साथ ही यह सिद्धान्त शिरोमणि का एक अंग भी है। लीलावती में अंकगणित का विवेचन किया गया है।
‘लीलावती’, भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। इस ग्रन्थ में पाटीगणित (अंकगणित), बीजगणित और ज्यामिति के प्रश्न एवं उनके उत्तर हैं। प्रश्न प्रायः लीलावती को सम्बोधित करके पूछे गये हैं। किसी गणितीय विषय (प्रकरण) की चर्चा करने के बाद लीलावती से एक प्रश्न पूछते हैं। उदाहरण के लिये निम्नलिखित श्लोक देखिये-
अये बाले लीलावति मतिमति ब्रूहि सहितान्
द्विपञ्चद्वात्रिंशत्त्रिनवतिशताष्टादश दश।
शतोपेतानेतानयुतवियुतांश्चापि वद मे
यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला ॥ (लीलावती, परिकर्माष्टक, १३)
(अये बाले लीलावति ! यदि तुम जोड़ और घटाने की क्रिया में दक्ष हो गयी हो तो (यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला) (इनका) योगफल (सहितान् ) बताओ- द्वि पञ्च द्वात्रिंशत् (32), त्रिनवतिशत् (193), अष्टादश (18), दश (10) – इनमें १०० जोड़ते हुए (शतोपेतन), १० हजार से (अयुतात् ) इनको घटा दें (वियुताम्) तो। )
वर्ण्यविषय
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लीलावती में १३ अध्याय हैं जिनमें निम्नलिखित विषयों का समावेश है-
१. परिभाषा
२. परिकर्म-अष्टक (संकलन (जोड़), व्यवकलन (घटाना), गुणन (गुणा करना), भाग (भाग करना), वर्ग (वर्ग करना), वर्गमूल (वर्ग मूल निकालना), घन (घन करना), घनमूल (घन मूल निकालना))
३. भिन्न-परिकर्म-अष्टक
४. शून्य-परिकर्म-अष्टक
५. प्रकीर्णक
६. मिश्रक-व्यवहार – इसमें ब्याज, स्वर्ण की मिलावट आदि से सम्बन्धित प्रश्न आते हैं।
७. श्रेढी-व्यवहार
८. क्षेत्र-व्यवहार
९. खात-व्यवहार
१०. चिति-व्यवहार
११. क्रकच-व्यवहार
१२. राशि-व्यवहार
१३. छाया-व्यवहार
१४. कुट्टक
१५. अंक-पाश
लीलावती के कुछ प्रश्न
पार्थः कर्णवधाय मार्गणगणं क्रुद्धो रणे सन्दधे
तस्यार्धेन निवार्य तच्छरगणं मूलैश्चतुभिर्हयान् |
शल्यं षड्भिरथेषुभिस्त्रिभिरपि च्छत्रं ध्वजं कार्मुकम्
चिच्छेदास्य शिरः शरेण कति ते यानर्जुनः सन्दधे ॥ ७६ ॥ (भागमूलोन-दृष्ट श्लोक-४)
अर्थ:- पृथा के पुत्र (अर्जुन) ने क्रोध से भरकर रण में कर्ण को मारने के लिए कुछ बाणों का समूह लिया। उसमें से आधे बाणों से कर्ण के बाणों को काट डाला और उस बाणगण के चतुर्गुणित मूल से उसके घोड़ों को मार डाला और ६ बाणों से उसके सारथी शल्य को यमराज का अतिथि बनाया। फिर तीन ३ बाणों से छत्र, ध्वजा और धनुष को तोड़ डाला। पीछे एक बाण से कर्ण का शिर काट डाला। तो कहो उस रण में अर्जुन ने कुल कितने बाण लिये थे? ॥४॥
लीलावती के क्षेत्रव्यवहार प्रकरण में भास्कराचार्य ने त्रिकोणमिति पर प्रश्न, त्रिभुजों तथा चतुर्भुजों के क्षेत्रफल, पाई का मान और गोलों के तल के क्षेत्रफल तथा आयतन के बारे में जानकारी दी है-
व्यासे भनन्दाग्नि (३९२७) हते विभक्ते ,
खबाणसूर्यैः (१२५०) परिधिस्तु सूक्ष्मः ॥
द्वाविंशति (२२) घ्ने वृहितेथ शैलैः (७)
स्थूलोऽथवा स्याद व्यवहारः योग्यः॥
अर्थात पाई का सूक्ष्म मान = ३९२७/१२५० , और
पाई का स्थूल मान = २२/७ है। [1]
[ भनन्दाग्नि = भ + नन्द + अग्नि -à भम् (नक्षत्र) – २७, नन्द (नन्द राजाओं की संख्या) – ९, अग्नि – ३ (जठराग्नि, बड़वाग्नि, तथा दावाग्नि) , भनन्दाग्नि – ३९२७ (ध्यान रखे, अंकानां वामतो गतिः à अंकों को दायें से बायें तरफ रखना है), खम् (आकाश) – ०, बाण – ५, सूर्याः – १२, खबाणसूर्याः – १२५०, शैलम् – ७]
निम्नलिखित प्रश्न, गायत्री छन्द से सम्बन्धित क्रमचय के बारे में है-
प्रस्तारे मित्र गायत्र्याः स्युः पादे व्यक्तयः कति।
एकादिगुरवश्चाशु कथ्यतां तत्पृथक् पृथक् ॥११०॥
- लीलावती कौन थी?
अनभिज्ञ लोग कहेंगे कि लीलावती नाम की भास्कराचार्य की कन्या थी। जबकि सम्पूर्ण ग्रन्थ का अध्ययन करने पर यह कल्पना आ ही नहीं सकती।
उदाहरण के लिए, भिन्न परिक्रमाष्टक प्रकरण के प्रारम्भ में गणेश स्तुति करते हुए लिखते हैं-
लीलागललुलल्लोलकालव्यालविलासिने
गणेशाय नमो नीलकमलामलकान्तये।
इस प्रकार, ‘लीला’ शब्द से ग्रन्थ आराम्भ हुआ है। इसके बाद स्थान-स्थान पर ‘लीला’ या ‘लीलावती’ शब्द प्रयुक्त हुआ है।
लीलावती ग्रन्थ का अन्तिम श्लोक इस बात का प्रमाण है कि लीलावती, भास्कराचार्य की पत्नी का नाम है।
येषां सुजातिगुणवर्गविभूषिताङ्गी शुद्धाखिल व्यवहृति खलु कण्ठासक्ता।
लीलावतीह सरसोक्तिमुदाहरन्ती तेषां सदैव सुखसम्पदुपैति वृद्धिम्॥
इस श्लोक के स्पष्टतः दो अभिप्राय हैं-
(१) भावार्थ – जिन शिष्यों को जोड़, घटाना, गुणन, भाग, वर्ग, घन आदि व्यवहारों, गणित के अवयवों निर्दोषगणित आदि से विभूषित लीलावती ग्रन्थ कण्ठस्थ होता है, उनकी गणित सम्पत्ति सदा वर्धमान होती है।
(२) भावार्थ- उच्च कुलपरम्परा में उत्पन्न, सुन्दर, सुशील, गुणसम्पत्तिसम्पन्न, स्वच्छव्यवहारप्रिया, सुकोमल एवं मधुरभाषिणी पत्नी जिनके कण्ठासक्ता हो (अर्थात अर्धाङ्गिनी हो) , उनकी सुख सम्पत्ति इस जगत में सदा सुखद, सुभद एवम वर्धमान होती है।
अतएव उक्त सद्गुणसम्पन्ना आर्या लीलावती नाम की श्रीमती को आचार्य भास्कर की अर्धाङ्गिनी होने का ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है।
करणकुतूहल
प्रस्तुत ग्रंथ “करणक़ुतूहल’’ एक करण ग्रंथ है जिसका आरम्भकाल शक 1105 अर्थात ईशवीय सन 1183 है | इसको “ग्रहागम क़ुतूहल’’ भी कहा जाता है| भास्कराचार्य ने अपने समय में प्रचलित सिद्धांतो में उदयान्तरादि संस्कार करके ग्रहादि स्पष्ट करने की विधि को इस कारण ग्रंथ में समायोजित किया | इस करणग्रंथ में कुल136 श्लोक हैं | पहले इसी कारण ग्रंथ के आधार पर पंचांग बनाए जाते थे, परन्तु कालांतर में मकरंद सारणी ग्रहलाघव आदि ग्रंथों के निर्माण के पश्चात इसके द्वारा पंचांग निर्माण का प्रचलन क्रमशः कम हो गया।
करण कुतूहल’ ग्रन्थ में मुख्यतः खगोल विज्ञान से सम्बन्धित विषयों की चर्चा की गई है
खगोल विज्ञान-
भास्कर ने सातवीं शताब्दी के ब्रह्मगुप्त के खगोल विज्ञान मॉडल को प्रयोग में लेते हुए, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के एक चक्कर लगाने में लगे समय की गणना की। जिसके अनुसार पृथ्वी को एक चक्कर लगाने में 365.2588 दिन लगते हैं।
वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार यह समय 365.2563 दिन है। जिससे पता चलता है कि उनकी गणना में सिर्फ 3.5 मिनट का ही अंतर है। जो यह दर्शाता है कि भास्कराचार्य की गणित का ज्ञान बहुत जबरदस्त था।
खगोल विज्ञान में भास्कर ने सूर्य उदय समीकरण, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, चंद्र वर्धमान, ग्रहों का तारों के साथ संयोजन, ग्रहों का ग्रहों के साथ संयोजन, सूर्य तथा चंद्रमा के पथ इत्यादि की भी गणना की। तथा सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की जानकारी दी गई है।
सूर्य ग्रहण एक खगोलीय घटना है जब चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तथा पृथ्वी से देखने पर सूर्य पूर्ण अथवा आंशिक रूप से चन्द्रमा द्वारा आच्छादित होता है।
खगोल शास्त्र के अनुसार 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं
सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हो।
चन्द्रमा और सूर्य के बीच में पृथ्वी के आ जाने की खगोलीय घटना को ही चन्द्र ग्रहण कहते हैं।
[चन्द्र ग्रहण को सूर्य ग्रहण के विपरीत किसी विशेष सुरक्षा उपकरण के बिना नंगी आँखों से भी देखा जा सकता है, क्योंकि चन्द्र ग्रहण की उज्ज्वलता पूर्ण चन्द्र से भी कम होती है।
पृथ्वी की छाया सूर्य से 6 राशि के अन्तर पर भ्रमण करती है तथा पूर्णिमा को चन्द्रमा की छाया सूर्य से 6 राशि के अन्तर होते हुए जिस पूर्णमासी को सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों के अंश, कला एवं विकला पृथ्वी के समान होते हैं अर्थात् एक सीध में होते हैं, उसी पूर्णमासी को चन्द्र ग्रहण लगता है।.
बिजगणितम्-
बीजगणित (algebra) गणित के व्यापक विभागों में से एक है। संख्या सिद्धांत, ज्यामिति और विश्लेषण आदि गणित के अन्य बड़े विभाग हैं। अपने सबसे सामान्य रूप में, बीजगणित गणितीय प्रतीकों और इन प्रतीकों में हेरफेर करने के नियमों का अध्ययन है। बीजगणित लगभग सम्पूर्ण गणित को एक सूत्र में पिरोने वाला विषय है। आरम्भिक समीकरण हल करने से लेकर समूह (ग्रुप्स), रिंग और फिल्ड का अध्ययन जैसे अमूर्त संकल्पनाओं का अध्ययन आदि अनेकानेक चीजें बीजगणित के अन्तर्गत आ जातीं हैं। बीजगणित के प्रगत अमूर्त भाग को अमूर्त बीजगणित कहते हैं।
गणित, विज्ञान, इंजीनियरी ही नहीं चिकित्साशास्त्र और अर्थशास्त्र के लिए भी आरम्भिक बीजगणित अपरिहार्य माना जाता है। आरम्भिक बीजगणित, अंकगणित से इस मामले में अलग है कि यह सीधे संख्याओं का प्रयोग करने के बजाय उनके स्थान पर अक्षरों का प्रयोग करता है जो या तो अज्ञात होतीं हैं या जो अनेक मान धारण कर सकतीं हैं।
बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है। बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामिति व कैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली।
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय के विचार
पूर्व प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तं वीजं प्रायः प्रश्नानोविनऽव्यक्त युक्तया।
ज्ञातुं शक्या मन्धीमिर्नितान्तः यस्मान्तस्यद्विच्मि वीज क्रियां च।
अर्थात् मन्दबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।
बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परन्तु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे—
क्ष = ल x च
बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारम्भ हुआ है; परन्तु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे।
मोटे अर्थ में बीजगणित, गणित की उस शाखा को कहते हैं जिसमें संख्याओं के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों का विवेचन सामान्य प्रतीकों (symbols) द्वारा किया जाता है। ये प्रतीक अधिकांशतः अक्षर (a, b, c,…,x, y, z) और संक्रिया चिह्न (operation signs) (+, -, *,…) और संबंधसूचक चिह्न (=, > , <…) होते हैं। उदाहरणत:, x2 +3x = 28 का अर्थ है, ‘कोई ऐसी संख्या x है, जिसके वर्ग में यदि उसका तीन गुना जोड़ दिया जाए, तो फल 28 मिलता है। बीजगणितीय प्रतीकों और संख्याओं का उपयोग न केवल गणित में किन्तु विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में होने लगा है। व्यापक अर्थ में बीजगणित में निम्नलिखित विषयों का विवेचन सम्मिलित होता है :
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विशिष्ट योगदान –
भास्कर एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है।
खगोलविद् के रूप में भास्कर अपनी तात्कालिक गति की अवधारणा के लिए प्रसिद्ध हैं। इससे खगोल वैज्ञानिकों को ग्रहों की गति का सही-सही पता लगाने में मदद मिलती है।
बीजगणित में भास्कर ब्रह्मगुप्त को अपना गुरु मानते थे और उन्होंने ज्यादातर उनके काम को ही बढ़ाया। बीजगणित के समीकरण को हल करने में उन्होंने चक्रवाल का तरीका अपनाया। वह उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। छह शताब्दियों के पश्चात् यूरोपियन गणितज्ञों जैसे गेलोयस, यूलर और लगरांज ने इस तरीके की फिर से खोज की और `इनवर्स साइक्लिक’ कह कर पुकारा। किसी गोलार्ध का क्षेत्र और आयतन निश्चित करने के लिए समाकलन गणित द्वारा निकालने का वर्णन भी पहली बार इस पुस्तक में मिलता है। इसमें त्रिकोणमिति के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र, प्रमेय तथा क्रमचय और संचय का विवरण मिलता है।
सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।
भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को “तात्कालिक गति” का नाम दिया और सिद्ध किया कि
d (ज्या q) = (कोटिज्या q) . dq
(शब्दों में, बिम्बार्धस्य कोटिज्या गुणस्त्रिज्याहारः फलं दोर्ज्यायोरान्तरम् )
भास्कर को अवकल गणित का संस्थापक कह सकते हैं। उन्होंने इसकी अवधारणा आइज़ैक न्यूटन और गोटफ्राइड लैब्नीज से कई शताब्दियों पहले की थी। ये दोनों पश्चिम में इस विषय के संस्थापक माने जाते हैं। जिसे आज अवकल गुणांक और रोल्स का प्रमेय कहते हैं, उसके उदाहरण भी दिए हैं।
न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय नामक ग्रंथ में ‘माध्यकर्षणतत्व’ के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।
कैलकुलस–
न्यूटन और लैब्नीज से पाँच-छः सौ वर्ष पहले ही भास्कराचार्य ने कैलकुलस पर महत्वपूर्ण कार्य कर लिया थ। उनका चलन-कलन (differential calculus) से सम्बन्धित कार्य (आविष्कार) तथा इसका खगोलीय समास्यों और गणनाओं में इसका उपयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यद्यपि न्यूटन और लैब्नीज को डिफरेंशियल और इन्टीग्रल कैल्कुलस का जन्मदता होने का श्रेय दिया जाता है किन्तु इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि भास्कर ही डिफरेंशियल कैलकुलस के कुछ सिद्धान्तों के आविष्कर्ता हैं। वे ही सम्भवतः प्रथम गणितज्ञ थे जिसने डिफरेंशियल गुणांक और डिफरेंशियल कैल्कुलस की संकल्पना को सबसे पहले समझा
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि.. भास्कराचार्य का अमूलय योगदान रहा है उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ–साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे। अतः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे महान गणितज्ञ के संबंध में अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि गणित एवं खगोलशास्त्र पर उनका योगदान अतुलनीय है।
|| संदर्भग्रंथ सूची || ..
1…सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्यविरचितम् व्याख्याकार पं.सत्यदेव शर्मा चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन वाराणसी
2.. सिद्धांतशिरोमणि_डॉ. मुरलीधरचतुर्वेदी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी
3.. करणक़ुतूहलम्.. डॉ. सत्येंद्रमिश्र :, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी
4—बिजगणितम्.. पं. श्रीवलदेवमिश्र..चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी
5.लीलावती. पं. श्रीलषणलाल झा
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सौजन्य – शुभम भारद्वाज ,देवाशीष नायक: , बोध राज: (के.सं.विश्वविद्यालय वेदव्यासपरिसर शिक्षाशास्त्री सत्र- 2022-23)