क्या है अधिमास, कब आता है, जानिए इसका पौराणिक आधार :- ज्योतिषीय मान्यतानुसार सूर्य प्रतिमास एक राशि पर संक्रमण करता है और उसे उस राशि की संक्रान्ति कहते हैं। सभी 12 राशियों की संक्रान्ति के पश्चात नवसंवत्सर आता है।
असंक्रांति मासोऽधिमास स्फुटः स्यात, द्विक्रांति मासः क्षयाख्यः कदाचित,
स्पष्टार्कसंक्रान्तिविहीन उक्तो मासौधिमासः क्षयमासकस्तु।
द्विक्रमस्तत्र विभागयोः स्तस्तिथिहि मासी प्रथमान्यसंज्ञी ||
– मुहूर्त चिंतामणि
क्या है अधिमास
सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन, १५ घड़ी, २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चांद्रवर्ष ३५४ दिन, २२ घड़ी, पल और विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन, ५३ घटी, २१ पल (अर्थात लगभग ११ दिन) का अन्तर पड़ता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिए चांद्रवर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है। ज्योतिषीय गणना को सही रखने के लिये तीन साल बाद चंद्रमास में एक अतिरिक्त माह जुड़ जाता है। इसे ही अधिक मास कहा जाता है।
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धार्मिक दृष्टि से यह मास भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को समर्पित पुण्यदायी मास है, भगवान श्रीकृष्ण का ही एक नाम पुरुषोत्तम होने से इस मास का नाम पुरुषोत्तम मास कहलाया। ज्योतिषविज्ञान अनुसार यह मास ३२ माह १६ दिन और चार घड़ी में फिर से आता है। अधिमास के विज्ञान को चन्द्रमास या सौरमास के आधार पर भी समझा जा सकता है।
ज्योतिष विज्ञान के अनुसार सूर्य पूरे वर्ष में १२ राशियों से गुजरता है। सूर्य का इन राशियों में अमण ३६५ दिन में पूर्ण होता है। सूर्य के एक राशि में संचरण कर दूसरी राशि में प्रवेश करने तक का काल सौर मास कहलाता है। अटल सूर्य की इस गति के आधार पर की जाने वाली वर्ष गणना सौर वर्ष कहलाती है। इसी प्रकार चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह होने से सूर्य के सापेक्ष गति बनाने के लिए २६ दिन १२ घंटे और ४४ मिनट समय लेता है, चंद्रमा की गति का यह काल चंद्रमास कहलाता है।
इस अवधि के आधार पर पूरे वर्ष के दिनों की गणना करें तो एक चंद्रवर्ष ३५४ दिनों का होता है। जबकि सौर वर्ष ३६५ दिनों का होता है। इस प्रकार चंद्रवर्ष में 15 दिन कम होते हैं। सनातन धर्म में प्राचीन ऋषि-मुनियों, ग्रह-नक्षत्रों और ज्योतिष विद्या के मनीषियों ने काल गणना त्रुटिरहित बनाने की दृष्टि से ही चंद्रवर्ष और सौरवर्ष की अवधि में इस अंतर को दूर करने के लिए ३२ माह १६ दिन और चार घड़ी के अंतर से यानि हर तीसरे चंदवर्ष में एक और चंद्रमास जोड़कर १५ दिनों के अंतर को पूरा किया जाता है। यह मास ही अधिकमास कहलाता है।
प्रत्येक राशि नक्षत्र,करण व चौत्रादि बारह मासों के सभी के स्वामी है, परन्तु मलमास का कोई स्थानी नहीं है. इसलिए देव कार्य,शुभ कार्य एवं पितृ कार्य इस मास में वर्जित माने गये है। इससे दुखी होकर स्वयं मलमास बहुत नाराज य उदास रहता था। इसी कारण सभी ओर उसकी निंदा होने लगी मलमास को सभी ने असहाय, निन्दक, अपूज्य तथा संक्रांति से वर्जित कहकर लज्जित किया। अत्यन्त लोक-भर्त्सना से चिन्तातुर होकर अपार दुखद समुद्र में मग्न हो गया।
वह कान्तिहीन, दुरूखा से युक्त, निंदा से दुखी होकर मल मास भगवान विष्णु के पास बैकुण्ठ लोक में पहुंचा और मलमास बोला- हे नाथ, हे कृपानिधे। मेरा नाम मलमास है, मैं सभी से तिरस्कृत होकर यहां आया हूं। सभी ने मुझे शुभ-कर्म वर्जित, अनाथ और सदैव घृणा-दृष्टि से देखा है। संसार में सभी क्षण, लव, मुहूर्त, पत, मास, अहोरात्र आदि अपने-अपने अधिपतियों के अधिकारों से सदैव निर्भय रहकर आनन्द मनाया करते है। मैं ऐसा अभागा हूं जिसका न कोई नाम है. न स्वामी, न धर्म तथा न ही कोई आश्रम है। इसलिए हे स्वामी, मैं अब मरना चाहता हूं ऐसा कहकर वह शान्त हो गया।
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तब भगवान विष्णु मलमास को लेकर गोलोक धाम गए। वहां भगवान श्रीकृष्ण मोरपंख का मुकुट व वैजयंती माला धारण कर स्वर्णजबित आसन पर बैठे थे। गोपियों से घिरे हुए थे, भगवान विष्णु ने मलमास को श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक करवाया व कहा कि यह मलमास वेद-शास्त्र के अनुसार पुण्य कर्मा के लिए अयोग्य माना गया है। इसीलिए सभी इसकी निंदा करते हैं।
तब श्रीकृष्ण ने कहा हे हरि! आप इसका हाथ पकड़कर यहां लाए हो, जिसे आपने स्वीकार किया। उसे मैंने भी स्वीकार कर लिया है। इसे मैं अपने ही समान करूंगा तथा गुण, कीर्ति, ऐश्वर्य, पराक्रम् भक्तों को बरदान आदि मेरे समान सभी गुण इसमें होंगे मेरे अन्दर जितने भी सदगुण है, उन सभी को मैं मलमास में तुम्हें सौंप रहा हूँ। मैं इसे अपना नाम ‘पुरुषोत्तम देता हूं और यह इसी नाम से विख्यात होगा। यह मेरे समान ही सभी मासों का स्वामी होगा कि अब से कोई भी मलमास की निंदा नहीं करेगा, मैं इस मास का स्वामी बन गया हूं जिस परमधाम गोलोक को पाने के लिए ऋषि तपस्या करते हैं।
वही दुर्लभ पद पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान व दान करने वाले को सरलता से प्राप्त हो जाएंगे, इस प्रकार मल मास पुरुषोत्तम मास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह मेरे समान ही सभी मासों का स्वामी होगा। अब यह जगत का पूज्य व नमस्कार करने योग्य होगा। इसे पूजन वालों के दुःख-दरिद्रता का नाश करेगा, यह मेरे समान ही मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करेगा। जो कोई इच्छा रहित या इच्छा वाला इसे पूजेगा वह अपने किए कर्मो को भस्म करके निःसंशय मुझ को प्राप्त होगा।
अहमेवास्य संजातः स्वामी च मधुसूदनः।
एतन्नान्मा जगत्सर्व पवित्रं च भविष्यति।।
मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्।
जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोयं तु भविष्यति।।
पूजकानां सर्वेषां दुःखदारिद्रयखण्डनः।।
अधिकमास का पौराणिक आधार
अधिक मास के लिए पुराणों में बड़ी ही सुंदर कथा सुनने को मिलती है। यह कथा दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध से जुड़ी है। पुराणों के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने एक बार ब्रह्मा जी को अपने कठोर तप से प्रसन्न कर लिया और उनसे अमरता का वरदान मांगा। चुंकि अमरता का वरदान देना निषिद्ध है, इसीलिए ब्रह्मा जी ने उसे कोई भी अन्य वर मांगने को कहा तब हिरण्यकश्यप ने वर मांगा कि उसे संसार का कोई नर नारी पशु देवता या असुर मार ना सके। यह वर्ष के 12 महीनों में मृत्यु को प्राप्त ना हो। जब वह मरे, तो ना दिन का समय हो, ना रात का। वह ना किसी अस्त्र से मरे, ना किसी शस्त्र से। उसे ना घर में मारा जा सके, ना ही घर से बाहर।
इस वरदान के मिलते ही हिरण्यकश्यप स्वयं को अमर मानने लगा और उसने खुद को भगवान घोषित कर दिया। समय आने पर भगवान विष्णु ने अधिकमास में नरसिंह अवतार यानि आधा पुरुष और आधे शेर के रूप में प्रकट होकर, शाम के समय, देहरी के नीचे अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का सीना चीर कर उसे मृत्यु के द्वार भेज दिया।
अधिकमास में क्या करना उचित
इस माह में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा-श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यन्त श्रेष्ठ समय है। देवी भागवत पुराण के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है। इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।
इस मास में प्रातः स्नान, दान, तप, नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप-गुरुमंत्र जप का अधिक महत्त्व है। इस माह में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख शोक आदि का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है।
वहीं इस साल में आश्विन मास के दो महीने होंगे। आश्विन माह 3 सितंबर से 31 अक्टूबर तक रहेगा। यानी इसकी अवधि करीब दो माह रहेगी। इन दो माह में बीच की अवधि वाला एक माह का समय अधिमास रहेगा। पितृमोक्ष अमावस्या के बाद 18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक पुरुषोत्तम मास रहेगा। इस कारण 17 अक्टूबर से शारदीय नवरात्रि पर्व शुरू होगा।
साभार-
डॉ सतीश कुमार
ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ
हिमाचलप्रदेश
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